माँ मातंगी के विभिन्न स्वरूपों की साधना विधियाँ भिन्न हो सकती हैं:
i. आवश्यक सामग्री:
मातंगी यंत्र (जिसे भोजपत्र पर कुमकुम से बनाया जा सकता है या तांबे का बना बनाया भी मिल सकता है), लाल मूंगा माला या स्फटिक या रुद्राक्ष की माला, लाल वस्त्र और लाल आसन । राज मातंगी साधना के लिए सफेद वस्त्र और आसन का भी उल्लेख है। पलाश के फूल, घी और हवन सामग्री हवन के लिए आवश्यक हैं।
ii. यंत्र निर्माण/विवरण एवं पूजा:
मातंगी यंत्र देवी की शक्तियों का ज्यामितीय प्रतिनिधित्व है। इसे घर, पूजा कक्ष या कार्यालय में स्थापित किया जा सकता है। यंत्र की प्राण प्रतिष्ठा अत्यंत महत्वपूर्ण है।
- उच्छिष्ट मातंगी यंत्र: भोजपत्र पर कुमकुम की स्याही से निर्मित किया जाता है।
- राज मातंगी यंत्र: चौकी पर सफेद वस्त्र बिछाकर, उस पर अक्षत से "ह्रीं" बीज मंत्र लिखकर, फिर उस पर माँ मातंगी का यंत्र या चित्र स्थापित किया जाता है।
- सुमुखी मातंगी: इस साधना में कवच और मंत्र जाप पर अधिक बल दिया गया है; विशिष्ट यंत्र निर्माण विधि स्पष्ट नहीं है, परन्तु सामान्य मातंगी यंत्र का प्रयोग किया जा सकता है।
- कर्ण मातंगी यंत्र: इस साधना के लिए प्राण प्रतिष्ठित यंत्र और विशेष गुटिका की स्थापना की जाती है।
iii. शुभ मुहूर्त एवं काल:
- उच्छिष्ट मातंगी: सोमवार का दिन, रात्रि 9 बजे के बाद।
- राज मातंगी: रात्रि 10 बजे के बाद या ब्रह्म मुहूर्त में।
- सामान्य मातंगी साधना: रात्रि 9 बजे के बाद।
- विशेष तिथियाँ: अक्षय तृतीया (मातंगी जयंती) और वैशाख पूर्णिमा (मातंगी सिद्धि दिवस) साधना के लिए अत्यंत शुभ माने जाते हैं। गुप्त नवरात्रि का नौवाँ दिन भी माँ मातंगी की पूजा के लिए विशेष है।
iv. मंत्र एवं ध्यान श्लोक:
बीज मंत्र: ऐं , ह्रीं , श्रीं , क्लीं , हूं।
मूल मंत्र (सामान्य): "ॐ ह्रीं क्लीं हूं मातंग्यै फट् स्वाहा:"।
उच्छिष्ट चांडालिनी मंत्र: "ऐं नमः उच्छिष्ट चांडालि मातंगी सर्ववशंकरी स्वाहा।" अथवा "नमः उच्छिष्ट चांडालि मातंगी सर्ववशंकरी स्वाहा।" अथवा "ॐ ह्रीं ऐं श्रीं नमो भगवति उच्छिष्टचांडालि श्रीमातंगेश्वरि सर्वजन वशंकरि स्वाहा।"।
राज मातंगी मंत्र: "ॐ ह्रीं ऐं भगवती मतंगेश्वरी श्रीं स्वाहा:"। हृदयंगम मातंगी साधना का मंत्र भी राज मातंगी से संबंधित है।
सुमुखी मातंगी मंत्र: "उच्छिष्ट चांडालिनी सुमुखी देवी महापिशाचिनी ह्रीं ठः ठः ठः"।
कर्ण मातंगी मंत्र: "ॐ नमः श्री मातंगी अमोघे सत्यवादिनि मम कर्णे अवतर अवतर सत्यं कथय कथय एहि एहि श्री मातंग्यै नमः"।
ध्यान श्लोक (राज मातंगी):
"श्यामांगीं शशिशेखरां त्रिनयनां वेदैः करैर्बिभ्रतीं, पाशं खेटमथांकुशं दृढमसिं नाशाय भक्तद्विषाम्। रत्नालंकरणप्रभोज्जवलतनुं भास्वत्किरीटां शुभां, मातंगीं मनसा स्मरामि सदयां सर्वाथसिद्धिप्रदाम्॥"
(अर्थ: श्याम वर्ण वाली, मस्तक पर चंद्र धारण करने वाली, तीन नेत्रों वाली, अपने हाथों में वेद, पाश, खेट (ढाल), अंकुश और तलवार धारण करने वाली, भक्तों के शत्रुओं का नाश करने वाली, रत्न आभूषणों से उज्ज्वल शरीर वाली, प्रकाशमान किरीट वाली, शुभ, दयालु, सभी अर्थों को सिद्ध करने वाली मातंगी का मैं मन से स्मरण करता हूँ।) अन्य ध्यान श्लोक में भी उपलब्ध हैं, जो उनके विभिन्न स्वरूपों का वर्णन करते हैं, जैसे वीणावादन करती हुईं, ताम्बूल से पूर्ण मुख वाली, रत्न सिंहासन पर बैठी तोते का मधुर शब्द सुनती हुईं आदि।
v. पूजा विधान:
- उच्छिष्ट मातंगी: पश्चिम दिशा की ओर मुख करके, लाल वस्त्र और लाल आसन पर बैठकर, रात्रि 9 बजे के बाद साधना प्रारंभ करें। नित्य 51 माला 21 दिनों तक जाप करें। 21वें दिन घी की कम से कम 108 आहुतियाँ देकर हवन करें। सिद्ध यंत्र को चांदी के ताबीज में डालकर धारण करें। सुमुखी मातंगी साधना में जूठे मुंह आठ हजार जप करने का विधान है।
- राज मातंगी: उत्तर दिशा की ओर मुख करके, सफेद वस्त्र और सफेद आसन पर बैठकर, अक्षत से "ह्रीं" बीज मंत्र लिखकर उस पर यंत्र स्थापित करें। हृदयंगम मातंगी साधना में पीले वस्त्र, उत्तर दिशा की ओर मुख, गुरु चित्र, हृदयंगम मातंगी यंत्र, गुटिका और माला का प्रयोग होता है।
- कर्ण मातंगी: दक्षिण दिशा की ओर मुख करके, घी या तेल का दीपक जलाकर, 11 दिनों तक प्रतिदिन 21 या 51 माला मंत्र जाप करें। 11वें दिन तेल और राई मिलाकर इसी मंत्र से 1000 आहुतियाँ दें।
- सामान्य विधि: साधना से पूर्व विनियोग, न्यास (ऋष्यादिन्यास, करन्यास, अंगन्यास) करें। देवी की पंचोपचार या षोडशोपचार पूजा करें। निर्दिष्ट मंत्र का जाप करें। मातंगी कवच का पाठ भी फलदायी होता है।
vi. नियम एवं विशेष सावधानियां:
माँ मातंगी की साधना, विशेषकर उच्छिष्ट या कर्ण मातंगी जैसी गूढ़ साधनाएँ, अत्यंत सावधानी और योग्य गुरु के मार्गदर्शन में ही करनी चाहिए। साधना को गुप्त रखना श्रेयस्कर है। कुछ परंपराओं में, जैसे उच्छिष्ट मातंगी साधना, जूठे मुंह जप करने का विधान है, जो सामान्य शुद्धता के नियमों के विपरीत है और तांत्रिक मार्ग की विशिष्टता को दर्शाता है। साधक को शांत स्वभाव के देवता की साधना को प्राथमिकता देनी चाहिए; क्रोधित या उग्र देवता की साधना में अत्यधिक सावधानी बरतनी चाहिए, क्योंकि त्रुटि होने पर गंभीर नकारात्मक परिणाम हो सकते हैं। साधना काल में काम, क्रोध, लोभ, मत्सर और अहंकार जैसे पाँच विकारों से मन को दूर रखना परम आवश्यक है, अन्यथा साधना में प्रगति बाधित हो सकती है।
vii. वामाचार/दक्षिणाचार पहलू:
माँ मातंगी की साधना में 'उच्छिष्ट' (जूठन) का प्रयोग और चांडालिनी स्वरूप स्पष्ट रूप से वामाचार की ओर संकेत करते हैं । यह सामाजिक और पारंपरिक शुद्धता की अवधारणाओं का अतिक्रमण है। कर्ण मातंगी साधना को दक्षिणाचार या वामाचार दोनों विधियों से किया जा सकता है। सुमुखी मातंगी कवच के विधान में रजस्वला स्त्री के स्पर्श और उसके वस्त्र के होम का उल्लेख मिलता है, जो स्पष्ट रूप से वामाचारी तांत्रिक क्रिया है। 'उच्छिष्ट' को स्वीकार करने और उसे साधना का अंग बनाने से साधक शुद्धता-अशुद्धता के द्वंद्व से ऊपर उठता है, जिससे उसे सामाजिक और मानसिक बंधनों से मुक्ति मिलती है और वह गहन तांत्रिक ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम होता है।