माँ त्रिपुर भैरवी दस महाविद्याओं में पाँचवीं अथवा छठी महाविद्या के रूप में प्रतिष्ठित हैं। वे विनाश और विध्वंस से संबंधित भगवान शिव के उग्र स्वरूप भैरव की शक्ति हैं। उन्हें 'बंदीछोड़ माता' भी कहा जाता है, क्योंकि वे अपने भक्तों को सभी प्रकार के बंधनों (शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और कर्मिक) से मुक्त करती हैं । वे ऊर्ध्वान्वय (ऊपर की ओर जाने वाली परंपरा) की देवता हैं, जिनके चार भुजाएँ और तीन नेत्र हैं । कुछ संदर्भों में उन्हें षोडशी या श्रीविद्या भी कहा गया है (यद्यपि वे त्रिपुर सुंदरी से भिन्न हैं)। माँ त्रिपुर भैरवी तमोगुण और रजोगुण की अधिष्ठात्री देवी हैं। उनका स्वरूप सौम्य और उग्र दोनों प्रकार का है, जो साधक की भक्ति और साधना की प्रकृति पर निर्भर करता है। वे कुंडलिनी शक्ति का भी प्रतिनिधित्व करती हैं, जो मूलाधार चक्र में सुप्त रहती है और जागृत होने पर ऊर्ध्वमुखी होकर सहस्रार में शिव से मिलती है। त्रिपुर भैरवी साधना तीव्र ऊर्जा (तपस) और विनाश (अहंकार और नकारात्मकता का) के माध्यम से साधक के रूपांतरण पर केंद्रित है।
माँ त्रिपुर भैरवी के भैरव दक्षिणमूर्ति अथवा काल भैरव माने जाते हैं। दक्षिणमूर्ति शिव का ज्ञान स्वरूप हैं, जो यह दर्शाता है कि भैरवी की विनाशकारी शक्ति भी अंततः ज्ञान और मुक्ति की ओर ले जाती है।
त्रिपुर भैरवी यंत्र, त्रिपुर शक्ति माला (या मूंगे की माला), और त्रिशक्ति गुटिका इस साधना के लिए आवश्यक सामग्री हैं। साधक को पीले रंग की धोती और पीले वस्त्र धारण करने चाहिए।
त्रिपुर भैरवी यंत्र सामान्यतः धातु की प्लेट पर निर्मित होता है। यंत्र को गंगाजल से स्नान कराकर, उस पर चंदन का लेप लगाकर और तुलसी पत्र रखकर स्थापित किया जाता है। यंत्र की पूजा धूप, दीप, पुष्प और नैवेद्य से की जाती है।
माँ त्रिपुर भैरवी की साधना प्रातः काल में करना विशेष फलदायी माना जाता है । यद्यपि, इसे किसी भी शुभ समय, सुबह या शाम, प्रारंभ किया जा सकता है।
बीज मंत्र: ह्सौं अथवा ह सः।
मूल मंत्र: "ह स: हसकरी हसे।" अथवा "ॐ ह्रीं भैरवी कलौं ह्रीं स्वाहा।" अथवा "ओम रीम भैरवी क्लोम रीम स्वाहा।"। एक अन्य मंत्र है: "ॐ त्रिपुरायै विद्महे महाभैरव्यै धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात्।"।
ध्यान श्लोक (उदाहरण):
(अर्थ: सहस्रों उदीयमान सूर्यों के समान कान्तिवाली, रक्तवर्ण रेशमी वस्त्र धारण की हुई, मुण्डमाला से विभूषित, रक्त से लिप्त पयोधरवाली, अपने करकमलों में जपमाला, विद्या, अभय और वर मुद्रा धारण करने वाली, तीन नेत्रों से सुशोभित कमलवत मुखवाली, मस्तक पर चन्द्रकला एवं रत्नजटित मुकुट धारण करने वाली, मंद मुस्कान युक्त देवी (त्रिपुर भैरवी) की मैं वंदना करता हूँ।)
साधक को पूर्वाभिमुख होकर पीले आसन पर बैठना चाहिए । सर्वप्रथम, उल्टे हाथ में गंगाजल, फूल, चावल और रोली लेकर अपनी मनोकामना का स्मरण करते हुए संकल्प लेना चाहिए। इसके बाद गणेश जी का पूजन करें । फिर त्रिपुर भैरवी यंत्र या मूर्ति का धूप, दीप, मिष्ठान्न, फल आदि से पूजन करें । निर्दिष्ट मंत्र का (उदाहरण के लिए 15 माला) जाप करें ।
माँ त्रिपुर भैरवी की शक्ति अत्यंत शक्तिशाली और उग्र हो सकती है, अतः इस साधना को किसी अनुभवी गुरु के मार्गदर्शन में ही करना चाहिए ताकि साधक उस ऊर्जा को नियंत्रित और सही दिशा में कर सके ।
माँ त्रिपुर भैरवी को सौम्य-उग्र कोटि की देवी माना जाता है। एक महत्वपूर्ण संदर्भ के अनुसार, भैरवी, छिन्नमस्ता और धूमावती की पूजा वामाचारी प्रक्रिया से, घर से दूर, किसी आत्म-साक्षात्कारी तंत्र गुरु के मार्गदर्शन में ही करनी चाहिए, क्योंकि भैरवी देवी की कोई पूर्ण सात्विक पूजा नहीं हो सकती। भैरवी की उग्र प्रकृति का ध्यान और साधना साधक के भीतर की दमित ऊर्जाओं और भयों को सतह पर लाती है, जिससे उनका सामना करके और उन्हें रूपांतरित करके आध्यात्मिक प्रगति संभव होती है।
माँ त्रिपुर भैरवी की साधना से साधक सभी प्रकार के बंधनों से मुक्त हो जाता है। यह साधना षोडश कलाओं में निपुण संतान की प्राप्ति में सहायक है, तथा साधक को जल, थल और नभ में वर्चस्व प्रदान करती है। व्यापार और आजीविका में अत्यधिक वृद्धि होती है, जिससे व्यक्ति संसार में धन-श्रेष्ठ और सुखी बनता है। उनकी कृपा से मनोवांछित वर या कन्या से विवाह होता है, वैवाहिक जीवन सुखमय होता है और आरोग्य की सिद्धि होती है । साधक में निडरता, निश्चिंतता और आत्मबल का विकास होता है। देवी प्रत्यक्ष प्रकट होकर साधक के सभी रोगों और शत्रुओं का नाश कर देती हैं, जिससे वह एक प्रतापी और सिद्ध पुरुष के रूप में ख्याति प्राप्त करता है। यह साधना कानूनी समस्याओं से मुक्ति, नकारात्मक शक्तियों से सुरक्षा, मन की एकाग्रता और आत्मविश्वास में वृद्धि, तथा जीवन में स्थिरता, शक्ति और सफलता प्रदान करती है । कुंडलिनी शक्ति की पूर्ण कृपा और सामूहिक आकर्षण की शक्ति भी इस साधना के फलों में सम्मिलित है । त्रिपुर भैरवी का "बंदीछोड़ माता" स्वरूप यह दर्शाता है कि तांत्रिक साधना का अंतिम लक्ष्य सभी प्रकार के बंधनों - शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और कर्मिक - से मुक्ति है, जिससे साधक आत्म-साक्षात्कार और मोक्ष प्राप्त कर सके।
माँ त्रिपुर भैरवी दस महाविद्याओं में पाँचवीं अथवा छठी महाविद्या के रूप में प्रतिष्ठित हैं। वे विनाश और विध्वंस से संबंधित भगवान शिव के उग्र स्वरूप भैरव की शक्ति हैं। उन्हें 'बंदीछोड़ माता' भी कहा जाता है, क्योंकि वे अपने भक्तों को सभी प्रकार के बंधनों (शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और कर्मिक) से मुक्त करती हैं । वे ऊर्ध्वान्वय (ऊपर की ओर जाने वाली परंपरा) की देवता हैं, जिनके चार भुजाएँ और तीन नेत्र हैं । कुछ संदर्भों में उन्हें षोडशी या श्रीविद्या भी कहा गया है (यद्यपि वे त्रिपुर सुंदरी से भिन्न हैं)। माँ त्रिपुर भैरवी तमोगुण और रजोगुण की अधिष्ठात्री देवी हैं। उनका स्वरूप सौम्य और उग्र दोनों प्रकार का है, जो साधक की भक्ति और साधना की प्रकृति पर निर्भर करता है। वे कुंडलिनी शक्ति का भी प्रतिनिधित्व करती हैं, जो मूलाधार चक्र में सुप्त रहती है और जागृत होने पर ऊर्ध्वमुखी होकर सहस्रार में शिव से मिलती है। त्रिपुर भैरवी साधना तीव्र ऊर्जा (तपस) और विनाश (अहंकार और नकारात्मकता का) के माध्यम से साधक के रूपांतरण पर केंद्रित है।
माँ त्रिपुर भैरवी के भैरव दक्षिणमूर्ति अथवा काल भैरव माने जाते हैं। दक्षिणमूर्ति शिव का ज्ञान स्वरूप हैं, जो यह दर्शाता है कि भैरवी की विनाशकारी शक्ति भी अंततः ज्ञान और मुक्ति की ओर ले जाती है।
त्रिपुर भैरवी यंत्र, त्रिपुर शक्ति माला (या मूंगे की माला), और त्रिशक्ति गुटिका इस साधना के लिए आवश्यक सामग्री हैं। साधक को पीले रंग की धोती और पीले वस्त्र धारण करने चाहिए।
त्रिपुर भैरवी यंत्र सामान्यतः धातु की प्लेट पर निर्मित होता है। यंत्र को गंगाजल से स्नान कराकर, उस पर चंदन का लेप लगाकर और तुलसी पत्र रखकर स्थापित किया जाता है। यंत्र की पूजा धूप, दीप, पुष्प और नैवेद्य से की जाती है।
माँ त्रिपुर भैरवी की साधना प्रातः काल में करना विशेष फलदायी माना जाता है । यद्यपि, इसे किसी भी शुभ समय, सुबह या शाम, प्रारंभ किया जा सकता है।
बीज मंत्र: ह्सौं अथवा ह सः।
मूल मंत्र: "ह स: हसकरी हसे।" अथवा "ॐ ह्रीं भैरवी कलौं ह्रीं स्वाहा।" अथवा "ओम रीम भैरवी क्लोम रीम स्वाहा।"। एक अन्य मंत्र है: "ॐ त्रिपुरायै विद्महे महाभैरव्यै धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात्।"।
ध्यान श्लोक (उदाहरण):
(अर्थ: सहस्रों उदीयमान सूर्यों के समान कान्तिवाली, रक्तवर्ण रेशमी वस्त्र धारण की हुई, मुण्डमाला से विभूषित, रक्त से लिप्त पयोधरवाली, अपने करकमलों में जपमाला, विद्या, अभय और वर मुद्रा धारण करने वाली, तीन नेत्रों से सुशोभित कमलवत मुखवाली, मस्तक पर चन्द्रकला एवं रत्नजटित मुकुट धारण करने वाली, मंद मुस्कान युक्त देवी (त्रिपुर भैरवी) की मैं वंदना करता हूँ।)
साधक को पूर्वाभिमुख होकर पीले आसन पर बैठना चाहिए । सर्वप्रथम, उल्टे हाथ में गंगाजल, फूल, चावल और रोली लेकर अपनी मनोकामना का स्मरण करते हुए संकल्प लेना चाहिए। इसके बाद गणेश जी का पूजन करें । फिर त्रिपुर भैरवी यंत्र या मूर्ति का धूप, दीप, मिष्ठान्न, फल आदि से पूजन करें । निर्दिष्ट मंत्र का (उदाहरण के लिए 15 माला) जाप करें ।
माँ त्रिपुर भैरवी की शक्ति अत्यंत शक्तिशाली और उग्र हो सकती है, अतः इस साधना को किसी अनुभवी गुरु के मार्गदर्शन में ही करना चाहिए ताकि साधक उस ऊर्जा को नियंत्रित और सही दिशा में कर सके ।
माँ त्रिपुर भैरवी को सौम्य-उग्र कोटि की देवी माना जाता है। एक महत्वपूर्ण संदर्भ के अनुसार, भैरवी, छिन्नमस्ता और धूमावती की पूजा वामाचारी प्रक्रिया से, घर से दूर, किसी आत्म-साक्षात्कारी तंत्र गुरु के मार्गदर्शन में ही करनी चाहिए, क्योंकि भैरवी देवी की कोई पूर्ण सात्विक पूजा नहीं हो सकती। भैरवी की उग्र प्रकृति का ध्यान और साधना साधक के भीतर की दमित ऊर्जाओं और भयों को सतह पर लाती है, जिससे उनका सामना करके और उन्हें रूपांतरित करके आध्यात्मिक प्रगति संभव होती है।
माँ त्रिपुर भैरवी की साधना से साधक सभी प्रकार के बंधनों से मुक्त हो जाता है। यह साधना षोडश कलाओं में निपुण संतान की प्राप्ति में सहायक है, तथा साधक को जल, थल और नभ में वर्चस्व प्रदान करती है। व्यापार और आजीविका में अत्यधिक वृद्धि होती है, जिससे व्यक्ति संसार में धन-श्रेष्ठ और सुखी बनता है। उनकी कृपा से मनोवांछित वर या कन्या से विवाह होता है, वैवाहिक जीवन सुखमय होता है और आरोग्य की सिद्धि होती है । साधक में निडरता, निश्चिंतता और आत्मबल का विकास होता है। देवी प्रत्यक्ष प्रकट होकर साधक के सभी रोगों और शत्रुओं का नाश कर देती हैं, जिससे वह एक प्रतापी और सिद्ध पुरुष के रूप में ख्याति प्राप्त करता है। यह साधना कानूनी समस्याओं से मुक्ति, नकारात्मक शक्तियों से सुरक्षा, मन की एकाग्रता और आत्मविश्वास में वृद्धि, तथा जीवन में स्थिरता, शक्ति और सफलता प्रदान करती है । कुंडलिनी शक्ति की पूर्ण कृपा और सामूहिक आकर्षण की शक्ति भी इस साधना के फलों में सम्मिलित है । त्रिपुर भैरवी का "बंदीछोड़ माता" स्वरूप यह दर्शाता है कि तांत्रिक साधना का अंतिम लक्ष्य सभी प्रकार के बंधनों - शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और कर्मिक - से मुक्ति है, जिससे साधक आत्म-साक्षात्कार और मोक्ष प्राप्त कर सके।