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तांत्रिक से लेकर शुद्ध दक्षिणाचार तक — जानिए माँ तारा साधना के रहस्य, नियम, लाभ और शक्तिशाली मंत्र

तांत्रिक से लेकर शुद्ध दक्षिणाचार तक — जानिए माँ तारा साधना के रहस्य, नियम, लाभ और शक्तिशाली मंत्रAI द्वारा विशेष रूप से इस लेख के लिए निर्मित एक चित्र।🔒 चित्र का पूर्ण अधिकार pauranik.org के पास सुरक्षित है।

माँ तारा साधना

क. परिचय एवं स्वरूप:

माँ तारा दस महाविद्याओं में द्वितीय स्थान रखती हैं । उनका स्वरूप बहुत कुछ माँ काली से मिलता-जुलता है; वे नील वर्ण की हैं, जिसके कारण उन्हें 'नील सरस्वती' भी कहा जाता है । भक्तों के कष्टों का हरण करने के लिए वे उग्र रूप धारण करती हैं, अतः 'उग्रतारा' नाम से भी प्रसिद्ध हैं । माँ तारा का उल्लेख न केवल हिन्दू तंत्र में बल्कि बौद्ध धर्म के वज्रयान तांत्रिक ग्रंथों में भी प्रमुखता से मिलता है, जो इन दोनों परंपराओं के बीच गहरे ऐतिहासिक और दार्शनिक संबंधों को उजागर करता है । वे ज्ञान, वाणी और विपत्तियों से तारने वाली शक्ति के रूप में पूजी जाती हैं। तारा साधना ज्ञान (नील सरस्वती के रूप में) और उग्र शक्ति (उग्रतारा के रूप में) दोनों का अद्भुत संगम है, जो साधक को भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही स्तरों पर सशक्त बनाने में सक्षम है।

ख. संबद्ध देवता/शक्ति:

माँ तारा के भैरव अक्षोभ्य ऋषि हैं, जो भगवान शिव का ही एक शांत और स्थिर स्वरूप माने जाते हैं और उनके मस्तक पर स्थित दिखाए जाते हैं । अक्षोभ्य का अर्थ है 'जिसे क्षुब्ध न किया जा सके'। माँ तारा ज्ञान और शक्ति की प्रचंड देवी हैं, और उनके शिव का 'अक्षोभ्य' होना यह इंगित करता है कि ऐसी असीम शक्ति और ज्ञान को धारण करने, संतुलित करने और नियंत्रित करने के लिए परम शांति और स्थिरता की पृष्ठभूमि नितांत आवश्यक है।

ग. साधना विधि:

i. आवश्यक सामग्री:

माँ तारा की साधना के लिए श्वेत वस्त्रासन और स्फटिक माला का विधान है । कुछ साधक काला हकीक, रुद्राक्ष या लाल मूंगे की माला का भी प्रयोग करते हैं । इसके अतिरिक्त नीला आसन, तांबे की पूजा पात्र (प्लेट, लोटा, चमची), पान के पत्ते, सुपारी, लौंग, काले तिल, सिंदूर, लाल चंदन, गाय का घी, दूध, गोबर, धूप, अगरबत्ती, कपूर, नारियल (कच्चा और सूखा), विभिन्न प्रकार के फल और मिठाई, पुष्प (विशेषकर नीले कमल), बिल्वपत्र, आम के पत्ते, केले के पत्ते और गंगाजल की आवश्यकता होती है । 'पारद तारा गुटिका' या "नील मेधा यन्त्र" भी साधना में प्रयुक्त होते हैं ।

ii. यंत्र निर्माण/विवरण एवं पूजा:

तारा यंत्र के केंद्र में एक बिंदु होता है, जिसके चारों ओर एक उल्टा त्रिकोण (शक्ति का प्रतीक), फिर एक वृत्त, अष्टदल कमल और सबसे बाहर भूपुर (वर्गाकार आकृति) होता है। यंत्र को पूर्व दिशा में पश्चिम की ओर मुख करके स्थापित करना चाहिए । स्थापना से पूर्व यंत्र को जल, दूध, शहद, पंचामृत और शक्कर से अभिषेक करने का विधान है।

iii. शुभ मुहूर्त एवं काल:

माँ तारा की साधना के लिए माघ मास की गुप्त नवरात्रि का दूसरा दिन विशेष रूप से शुभ माना जाता है । उनकी पूजा अर्धरात्रि में करना श्रेष्ठ फलदायी होता है । इसके अतिरिक्त, किसी भी शुभ दिन, मंगलवार या शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि से भी यह साधना प्रारंभ की जा सकती है । रात्रि 10 बजे से सुबह 3 बजे के बीच का समय, विशेषकर रात्रि 11:48 से 12:20 के बीच का समय, मंत्र जप के लिए उत्तम माना गया है ।

iv. मंत्र एवं ध्यान श्लोक:

बीज मंत्र: स्त्रीं या ह्रीं स्त्रीं हूं फट् ।

मूल मंत्र: "ऐं ऊँ ह्रीं क्रीं हूं फट्।" अथवा "ॐ ह्रीं स्त्रीं हुं फट्॥"

नील सरस्वती तारा मंत्र: "ॐ ऐं कूं कैं चां चूं ह्रीं स्त्रीं हूं"

ध्यान श्लोक (नील सरस्वती तारा):

"अटटाटटहास्निर्तामतिघोररूपाम्। व्याघ्राम्बराम शशिधरां घननीलवर्नाम॥ कर्त्रीकपालकमलासिकराम त्रिनेत्रां। मालीढपादशवगां प्रणमामि ताराम्॥"

(अर्थ: जो अट्टहास करती हैं, अत्यंत घोर रूप वाली हैं, बाघ की खाल पहनती हैं, मस्तक पर चंद्रमा धारण करती हैं, घने नीले वर्ण की हैं, जिनके हाथों में कर्त्री (काटने का हथियार), कपाल, कमल और तलवार है, जो तीन नेत्रों वाली हैं, और जो शव पर आरूढ़ (आलीढ मुद्रा में) हैं, उन तारा देवी को मैं प्रणाम करता हूँ।) एक अन्य ध्यान में उन्हें हरे रंग का, कमल पर आसीन और एक हाथ से सुरक्षा मुद्रा प्रदर्शित करते हुए वर्णित किया गया है।

v. पूजा विधान:

यह साधना एकांत कक्ष में करनी चाहिए जहाँ साधक के अतिरिक्त कोई और उपस्थित न हो । साधक को स्नान करके सफेद या पीले रंग के वस्त्र (बिना सिले हुए वस्त्र उत्तम माने जाते हैं) धारण करने चाहिए । उत्तर या पूर्व दिशा की ओर मुख करके आसन पर बैठें । साधना प्रारंभ करने से पूर्व गुरु मंत्र और महामृत्युंजय मंत्र का एक-एक माला जाप करना श्रेयस्कर होता है । इसके बाद संकल्प, विनियोग और न्यास (करन्यास, हृदयादिन्यास आदि) करें । देवी के विग्रह या यंत्र पर त्राटक (टकटकी लगाकर देखना) करते हुए निर्दिष्ट मंत्र का (उदाहरणार्थ 11 माला) जाप करें । यह साधना सामान्यतः 5 दिनों तक करने का विधान है।

vi. नियम एवं विशेष सावधानियां:

किसी भी तांत्रिक साधना की भाँति, माँ तारा की साधना भी योग्य गुरु की आज्ञा और मार्गदर्शन में ही करनी चाहिए । साधना काल में पूर्ण एकांत बनाए रखना आवश्यक है । सात्विक भोजन का सेवन करें, ब्रह्मचर्य का पालन करें; साधना के दिनों में फलाहार करना सर्वश्रेष्ठ माना जाता है । साधना में बैठने से पूर्व शौचादि नित्यकर्मों से निवृत्त हो जाएं ताकि बीच में उठना न पड़े ।

vii. वामाचार/दक्षिणाचार पहलू:

माँ तारा की उपासना दोनों ही मार्गों से की जाती है। प्रसिद्ध तारापीठ (पश्चिम बंगाल) में उनकी पूजा वामाचार पद्धति से होती है, जिसमें पंचमकार (मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा, मैथुन) का भोग देवी को अर्पित किया जाता है । इन तत्वों को अर्पित करने से पूर्व मंत्रों द्वारा उनकी शुद्धि और विशेष पूजा विधान का पालन किया जाता है। दक्षिणाचार पद्धति में इन तत्वों के स्थान पर उनके अनुकल्प (प्रतीकात्मक विकल्प, जैसे नारियल का जल मद्य के स्थान पर) का प्रयोग किया जाता है।

घ. साधना के लाभ:

माँ तारा की साधना से शत्रुओं का नाश होता है, उत्कृष्ट ज्ञान की प्राप्ति होती है और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सफलता मिलती है। यह साधना साधक को मोक्ष तक प्रदान करने में सक्षम है। आर्थिक उन्नति, धन संबंधी समस्याओं का निवारण और दिव्य सिद्धियों की प्राप्ति भी इस साधना के प्रमुख लाभों में से हैं । माँ तारा की कृपा से साधक काम, क्रोध, मोह और लोभ जैसे मनोविकारों से मुक्ति पाता है । नील सरस्वती के रूप में उनकी साधना वाक् सिद्धि (वाणी की शक्ति) प्रदान करती है। वे सभी प्रकार के संकटों से रक्षा करने वाली देवी हैं ।


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पढ़िए और जानिए माँ मातंगी साधना की शक्तिशाली विधि, रहस्य, मंत्र और वाक् सिद्धि प्राप्त करने का मार्ग !
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क. परिचय एवं स्वरूप:

माँ तारा दस महाविद्याओं में द्वितीय स्थान रखती हैं । उनका स्वरूप बहुत कुछ माँ काली से मिलता-जुलता है; वे नील वर्ण की हैं, जिसके कारण उन्हें 'नील सरस्वती' भी कहा जाता है । भक्तों के कष्टों का हरण करने के लिए वे उग्र रूप धारण करती हैं, अतः 'उग्रतारा' नाम से भी प्रसिद्ध हैं । माँ तारा का उल्लेख न केवल हिन्दू तंत्र में बल्कि बौद्ध धर्म के वज्रयान तांत्रिक ग्रंथों में भी प्रमुखता से मिलता है, जो इन दोनों परंपराओं के बीच गहरे ऐतिहासिक और दार्शनिक संबंधों को उजागर करता है । वे ज्ञान, वाणी और विपत्तियों से तारने वाली शक्ति के रूप में पूजी जाती हैं। तारा साधना ज्ञान (नील सरस्वती के रूप में) और उग्र शक्ति (उग्रतारा के रूप में) दोनों का अद्भुत संगम है, जो साधक को भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही स्तरों पर सशक्त बनाने में सक्षम है।

ख. संबद्ध देवता/शक्ति:

माँ तारा के भैरव अक्षोभ्य ऋषि हैं, जो भगवान शिव का ही एक शांत और स्थिर स्वरूप माने जाते हैं और उनके मस्तक पर स्थित दिखाए जाते हैं । अक्षोभ्य का अर्थ है 'जिसे क्षुब्ध न किया जा सके'। माँ तारा ज्ञान और शक्ति की प्रचंड देवी हैं, और उनके शिव का 'अक्षोभ्य' होना यह इंगित करता है कि ऐसी असीम शक्ति और ज्ञान को धारण करने, संतुलित करने और नियंत्रित करने के लिए परम शांति और स्थिरता की पृष्ठभूमि नितांत आवश्यक है।

ग. साधना विधि:

i. आवश्यक सामग्री:

माँ तारा की साधना के लिए श्वेत वस्त्रासन और स्फटिक माला का विधान है । कुछ साधक काला हकीक, रुद्राक्ष या लाल मूंगे की माला का भी प्रयोग करते हैं । इसके अतिरिक्त नीला आसन, तांबे की पूजा पात्र (प्लेट, लोटा, चमची), पान के पत्ते, सुपारी, लौंग, काले तिल, सिंदूर, लाल चंदन, गाय का घी, दूध, गोबर, धूप, अगरबत्ती, कपूर, नारियल (कच्चा और सूखा), विभिन्न प्रकार के फल और मिठाई, पुष्प (विशेषकर नीले कमल), बिल्वपत्र, आम के पत्ते, केले के पत्ते और गंगाजल की आवश्यकता होती है । 'पारद तारा गुटिका' या "नील मेधा यन्त्र" भी साधना में प्रयुक्त होते हैं ।

ii. यंत्र निर्माण/विवरण एवं पूजा:

तारा यंत्र के केंद्र में एक बिंदु होता है, जिसके चारों ओर एक उल्टा त्रिकोण (शक्ति का प्रतीक), फिर एक वृत्त, अष्टदल कमल और सबसे बाहर भूपुर (वर्गाकार आकृति) होता है। यंत्र को पूर्व दिशा में पश्चिम की ओर मुख करके स्थापित करना चाहिए । स्थापना से पूर्व यंत्र को जल, दूध, शहद, पंचामृत और शक्कर से अभिषेक करने का विधान है।

iii. शुभ मुहूर्त एवं काल:

माँ तारा की साधना के लिए माघ मास की गुप्त नवरात्रि का दूसरा दिन विशेष रूप से शुभ माना जाता है । उनकी पूजा अर्धरात्रि में करना श्रेष्ठ फलदायी होता है । इसके अतिरिक्त, किसी भी शुभ दिन, मंगलवार या शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि से भी यह साधना प्रारंभ की जा सकती है । रात्रि 10 बजे से सुबह 3 बजे के बीच का समय, विशेषकर रात्रि 11:48 से 12:20 के बीच का समय, मंत्र जप के लिए उत्तम माना गया है ।

iv. मंत्र एवं ध्यान श्लोक:

बीज मंत्र: स्त्रीं या ह्रीं स्त्रीं हूं फट् ।

मूल मंत्र: "ऐं ऊँ ह्रीं क्रीं हूं फट्।" अथवा "ॐ ह्रीं स्त्रीं हुं फट्॥"

नील सरस्वती तारा मंत्र: "ॐ ऐं कूं कैं चां चूं ह्रीं स्त्रीं हूं"

ध्यान श्लोक (नील सरस्वती तारा):

"अटटाटटहास्निर्तामतिघोररूपाम्। व्याघ्राम्बराम शशिधरां घननीलवर्नाम॥ कर्त्रीकपालकमलासिकराम त्रिनेत्रां। मालीढपादशवगां प्रणमामि ताराम्॥"

(अर्थ: जो अट्टहास करती हैं, अत्यंत घोर रूप वाली हैं, बाघ की खाल पहनती हैं, मस्तक पर चंद्रमा धारण करती हैं, घने नीले वर्ण की हैं, जिनके हाथों में कर्त्री (काटने का हथियार), कपाल, कमल और तलवार है, जो तीन नेत्रों वाली हैं, और जो शव पर आरूढ़ (आलीढ मुद्रा में) हैं, उन तारा देवी को मैं प्रणाम करता हूँ।) एक अन्य ध्यान में उन्हें हरे रंग का, कमल पर आसीन और एक हाथ से सुरक्षा मुद्रा प्रदर्शित करते हुए वर्णित किया गया है।

v. पूजा विधान:

यह साधना एकांत कक्ष में करनी चाहिए जहाँ साधक के अतिरिक्त कोई और उपस्थित न हो । साधक को स्नान करके सफेद या पीले रंग के वस्त्र (बिना सिले हुए वस्त्र उत्तम माने जाते हैं) धारण करने चाहिए । उत्तर या पूर्व दिशा की ओर मुख करके आसन पर बैठें । साधना प्रारंभ करने से पूर्व गुरु मंत्र और महामृत्युंजय मंत्र का एक-एक माला जाप करना श्रेयस्कर होता है । इसके बाद संकल्प, विनियोग और न्यास (करन्यास, हृदयादिन्यास आदि) करें । देवी के विग्रह या यंत्र पर त्राटक (टकटकी लगाकर देखना) करते हुए निर्दिष्ट मंत्र का (उदाहरणार्थ 11 माला) जाप करें । यह साधना सामान्यतः 5 दिनों तक करने का विधान है।

vi. नियम एवं विशेष सावधानियां:

किसी भी तांत्रिक साधना की भाँति, माँ तारा की साधना भी योग्य गुरु की आज्ञा और मार्गदर्शन में ही करनी चाहिए । साधना काल में पूर्ण एकांत बनाए रखना आवश्यक है । सात्विक भोजन का सेवन करें, ब्रह्मचर्य का पालन करें; साधना के दिनों में फलाहार करना सर्वश्रेष्ठ माना जाता है । साधना में बैठने से पूर्व शौचादि नित्यकर्मों से निवृत्त हो जाएं ताकि बीच में उठना न पड़े ।

vii. वामाचार/दक्षिणाचार पहलू:

माँ तारा की उपासना दोनों ही मार्गों से की जाती है। प्रसिद्ध तारापीठ (पश्चिम बंगाल) में उनकी पूजा वामाचार पद्धति से होती है, जिसमें पंचमकार (मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा, मैथुन) का भोग देवी को अर्पित किया जाता है । इन तत्वों को अर्पित करने से पूर्व मंत्रों द्वारा उनकी शुद्धि और विशेष पूजा विधान का पालन किया जाता है। दक्षिणाचार पद्धति में इन तत्वों के स्थान पर उनके अनुकल्प (प्रतीकात्मक विकल्प, जैसे नारियल का जल मद्य के स्थान पर) का प्रयोग किया जाता है।

घ. साधना के लाभ:

माँ तारा की साधना से शत्रुओं का नाश होता है, उत्कृष्ट ज्ञान की प्राप्ति होती है और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सफलता मिलती है। यह साधना साधक को मोक्ष तक प्रदान करने में सक्षम है। आर्थिक उन्नति, धन संबंधी समस्याओं का निवारण और दिव्य सिद्धियों की प्राप्ति भी इस साधना के प्रमुख लाभों में से हैं । माँ तारा की कृपा से साधक काम, क्रोध, मोह और लोभ जैसे मनोविकारों से मुक्ति पाता है । नील सरस्वती के रूप में उनकी साधना वाक् सिद्धि (वाणी की शक्ति) प्रदान करती है। वे सभी प्रकार के संकटों से रक्षा करने वाली देवी हैं ।


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