माँ धूमावती दस महाविद्याओं में सातवीं अथवा कुछ मतों के अनुसार अंतिम महाविद्या हैं। उनका स्वरूप अत्यंत विशिष्ट और अन्य देवियों से भिन्न है। वे प्रायः एक वृद्धा, कुरूप, विधवा के रूप में चित्रित की जाती हैं, जिनका वर्ण पीला-धूसर या धुएँ जैसा होता है। वे मलिन वस्त्र धारण करती हैं, उनके बाल बिखरे हुए होते हैं, और वे रथहीन गाड़ी या कौवे पर सवार दिखाई देती हैं। उनका निवास स्थान अक्सर श्मशान भूमि बताया जाता है । उन्हें अलक्ष्मी (लक्ष्मी की विपरीत) या ज्येष्ठा (दुर्भाग्य की देवी) से भी संबंधित किया जाता है । माँ धूमावती प्रलय काल (सृष्टि के विनाश के समय) में प्रकट होती हैं और उस 'शून्य' या 'अभाव' का प्रतिनिधित्व करती हैं जो सृष्टि से पहले और प्रलय के बाद विद्यमान रहता है । उनका यह स्वरूप सांसारिक आकर्षणों और मोह के त्याग का प्रतीक है। धूमावती साधना 'शून्यता' और 'अभाव' की शक्ति को समझने और उससे परे जाने पर केंद्रित है।
माँ धूमावती को प्रायः स्वामी रहित (विधवा) माना जाता है, जो उनके एकाकी और अनासक्त स्वरूप को दर्शाता है। कुछ कथाओं में उन्हें अपने पति शिव (धूमावन के रूप में) को ही अपनी क्षुधा शांत करने के लिए भक्षण कर लेने वाली देवी के रूप में भी वर्णित किया गया है, जो अज्ञान की शक्ति (भूख, लालसा) द्वारा चेतना (शिव) को ढक लेने का प्रतीक है ।
धूमावती यंत्र, सफेद तिल, काला कपड़ा, काली मिर्च, काले तिल, काजल, और तेल का दीपक इस साधना में प्रयुक्त होने वाली मुख्य सामग्रियाँ हैं। कुछ परंपराओं में श्वेत वस्त्र और तुलसी की माला का विधान है, जबकि अन्य रंगीन पूजन सामग्री का निषेध बताया गया है।
धूमावती यंत्र कागज पर लाल स्याही से एक त्रिभुज, उसके ऊपर विपरीत दिशा में दूसरा त्रिभुज (षट्कोण बनाकर), और फिर एक वृत्त बनाकर, मध्य में देवी का मंत्र ("धूं धूं धूमावती ठः ठः स्वाहा") लिखकर निर्मित किया जा सकता है । एक अन्य विधि में, यंत्र को किसी प्लेट में काजल से "धूं" बीज मंत्र लिखकर स्थापित किया जाता है, फिर उसे जल से धोकर रोली से तीन बिंदियां (सत्व, रज, तम गुणों का प्रतीक) लगाई जाती हैं । धूमावती यंत्र में सामान्यतः केंद्र में बिंदु युक्त त्रिकोण, एक षट्कोण, एक वृत्त और अष्टदल कमल होता है, जो एक वर्गाकार भूपुर संरचना के भीतर स्थित होता है ।
माँ धूमावती की जयंती, जो ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाई जाती है, उनकी साधना के लिए अत्यंत शुभ मानी जाती है। इसके अतिरिक्त, किसी भी महीने के कृष्ण पक्ष का शनिवार या गुप्त नवरात्रि भी इस साधना के लिए उपयुक्त समय हैं।
बीज मंत्र: धूं ।
मूल मंत्र: "धूं धूं धूमावती ठ: ठ:" अथवा "ॐ धूं धूं धूमावती देव्यै स्वाहा:" अथवा "ॐ धूं धूं धूमावत्यै फट्" ।
तांत्रिक मंत्र: "धूम्रा मतिव सतिव पूर्णात सा सायुग्मे। सौभाग्यदात्री सदैव करुणामयि:॥"।
ध्यान श्लोक: माँ धूमावती का ध्यान उनके उग्र, वृद्धा, विधवा, विवर्णा, चंचला, कृशकाय, बिखरे केशों वाली, हाथ में सूप धारण किए, कौवे के ध्वज वाले रथ पर आरूढ़, अत्यंत क्षुधातुर, कठोर नेत्रों वाली, कलहप्रिया और भयोत्पादक स्वरूप पर किया जाता है। उनके कवच में पिप्पलाद ऋषि, निवृत छंद और धूमावती देवता का उल्लेख है।
साधक को ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नान आदि से निवृत्त होकर स्वच्छ वस्त्र (प्रायः काले वस्त्र) धारण करने चाहिए । पूजा स्थल को गंगाजल से पवित्र करके, दक्षिण दिशा में लकड़ी की चौकी पर काला कपड़ा बिछाकर उस पर गीला नारियल (पानी वाला) या धूमावती यंत्र स्थापित करें। तेल का दीपक जलाएं। संकल्प, विनियोग, न्यास (जैसे पिप्पलाद ऋषि को शिर में, त्रिव्रत् छंद को मुख में, श्री ज्येष्ठा धूमावती देवता को हृदय में) करें । इसके बाद देवी का ध्यान करके धूप, दीप, चावल, पुष्प (सूखे फूल भी चढ़ाए जा सकते हैं) आदि से पूजन करें । निर्दिष्ट मंत्र का जाप (सामान्यतः 9, 11 या 21 दिन, प्रतिदिन निर्धारित संख्या में, जैसे 9 माला) करें। मंत्र जप संपन्न होने पर मंत्र का दशांश हवन काली मिर्च, काले तिल, घी और हवन सामग्री से करें।
सुहागिन महिलाओं को माँ धूमावती की पूजा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वे विधवा देवी मानी जाती हैं। साधक को साधना काल में पूर्ण सात्विक आचरण करना चाहिए, नियम-संयम का पालन करना चाहिए, सत्यनिष्ठ रहना चाहिए और लोभ-लालच से दूर रहना चाहिए । शराब और मांस का सेवन सर्वथा वर्जित है। साधना को गुप्त रखना चाहिए । पूजा के दौरान सफाई और स्नान का विशेष ध्यान रखना चाहिए, तथा काले वस्त्र और काले आसन का ही प्रयोग करना चाहिए। यह साधना, विशेषकर इसके उग्र रूप, वामाचारी प्रक्रिया से, घर से दूर, किसी योग्य गुरु के मार्गदर्शन में ही की जानी चाहिए। क्रोधित देवता की साधना में अत्यधिक सावधानी बरतनी चाहिए, क्योंकि भूल होने पर गंभीर परिणाम हो सकते हैं। काम, क्रोध, लोभ, मत्सर और अहंकार इन पाँच विकारों से साधक को मन से दूर रहना चाहिए।
माँ धूमावती अत्यंत उग्र कोटि की देवी हैं । उनका स्वरूप, पूजा विधान (जैसे श्मशान में साधना, अपवित्र वस्तुओं का संभावित प्रयोग) और संबद्धता (अलक्ष्मी, ज्येष्ठा) वामाचार की ओर प्रबल संकेत करते हैं। और स्पष्ट रूप से भैरवी, छिन्नमस्ता और धूमावती की पूजा को वामाचारी प्रक्रिया के अंतर्गत मानते हैं, जिसे घर से दूर और आत्म-साक्षात्कारी गुरु के निर्देशन में किया जाना चाहिए। में उन्हें "वाममार्गी तंत्र में सिद्धियों की प्राप्ति के लिए पूजित या भयभीत" बताया गया है। यद्यपि कुछ सौम्य प्रार्थनाएँ और स्तोत्र भी उपलब्ध हैं, उनकी मूल साधना प्रकृति में तांत्रिक और प्रायः वामाचारी है।
माँ धूमावती की साधना से शत्रुओं का पूर्ण नाश और स्तंभन होता है। यह साधना लंबे समय से चले आ रहे ऋणों से मुक्ति दिलाती है। दुर्भाग्य का नाश होकर सौभाग्य में परिवर्तन होता है, और गरीबी सदा के लिए दूर होती है । सभी प्रकार के संकटों, रोगों और बाधाओं का निवारण होता है। माँ धूमावती की कृपा से साधक को विभिन्न सिद्धियाँ, परम ज्ञान और अंततः मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है । साधक में निडरता, निश्चिंतता और आत्मबल का विकास होता है। यह साधना भूत-प्रेत, काले जादू और अन्य नकारात्मक शक्तियों से रक्षा करती है । धूमावती की साधना, जो अक्सर त्याग और कठोर नियमों से जुड़ी होती है, साधक को सांसारिक आसक्तियों से मुक्त करती है और उसे जीवन की क्षणभंगुरता का गहन ज्ञान कराती है, जिससे वैराग्य और सच्चे आध्यात्मिक ज्ञान का मार्ग प्रशस्त होता है। महाविद्याओं में उनका स्थान यह दर्शाता है कि तांत्रिक परंपरा जीवन के तथाकथित नकारात्मक पहलुओं (जैसे गरीबी, कुरूपता, हानि, अभाव) को भी दिव्यता के अनुभव और आध्यात्मिक विकास के साधन के रूप में देखती है, उन्हें दबाने या अनदेखा करने के बजाय।
माँ धूमावती दस महाविद्याओं में सातवीं अथवा कुछ मतों के अनुसार अंतिम महाविद्या हैं। उनका स्वरूप अत्यंत विशिष्ट और अन्य देवियों से भिन्न है। वे प्रायः एक वृद्धा, कुरूप, विधवा के रूप में चित्रित की जाती हैं, जिनका वर्ण पीला-धूसर या धुएँ जैसा होता है। वे मलिन वस्त्र धारण करती हैं, उनके बाल बिखरे हुए होते हैं, और वे रथहीन गाड़ी या कौवे पर सवार दिखाई देती हैं। उनका निवास स्थान अक्सर श्मशान भूमि बताया जाता है । उन्हें अलक्ष्मी (लक्ष्मी की विपरीत) या ज्येष्ठा (दुर्भाग्य की देवी) से भी संबंधित किया जाता है । माँ धूमावती प्रलय काल (सृष्टि के विनाश के समय) में प्रकट होती हैं और उस 'शून्य' या 'अभाव' का प्रतिनिधित्व करती हैं जो सृष्टि से पहले और प्रलय के बाद विद्यमान रहता है । उनका यह स्वरूप सांसारिक आकर्षणों और मोह के त्याग का प्रतीक है। धूमावती साधना 'शून्यता' और 'अभाव' की शक्ति को समझने और उससे परे जाने पर केंद्रित है।
माँ धूमावती को प्रायः स्वामी रहित (विधवा) माना जाता है, जो उनके एकाकी और अनासक्त स्वरूप को दर्शाता है। कुछ कथाओं में उन्हें अपने पति शिव (धूमावन के रूप में) को ही अपनी क्षुधा शांत करने के लिए भक्षण कर लेने वाली देवी के रूप में भी वर्णित किया गया है, जो अज्ञान की शक्ति (भूख, लालसा) द्वारा चेतना (शिव) को ढक लेने का प्रतीक है ।
धूमावती यंत्र, सफेद तिल, काला कपड़ा, काली मिर्च, काले तिल, काजल, और तेल का दीपक इस साधना में प्रयुक्त होने वाली मुख्य सामग्रियाँ हैं। कुछ परंपराओं में श्वेत वस्त्र और तुलसी की माला का विधान है, जबकि अन्य रंगीन पूजन सामग्री का निषेध बताया गया है।
धूमावती यंत्र कागज पर लाल स्याही से एक त्रिभुज, उसके ऊपर विपरीत दिशा में दूसरा त्रिभुज (षट्कोण बनाकर), और फिर एक वृत्त बनाकर, मध्य में देवी का मंत्र ("धूं धूं धूमावती ठः ठः स्वाहा") लिखकर निर्मित किया जा सकता है । एक अन्य विधि में, यंत्र को किसी प्लेट में काजल से "धूं" बीज मंत्र लिखकर स्थापित किया जाता है, फिर उसे जल से धोकर रोली से तीन बिंदियां (सत्व, रज, तम गुणों का प्रतीक) लगाई जाती हैं । धूमावती यंत्र में सामान्यतः केंद्र में बिंदु युक्त त्रिकोण, एक षट्कोण, एक वृत्त और अष्टदल कमल होता है, जो एक वर्गाकार भूपुर संरचना के भीतर स्थित होता है ।
माँ धूमावती की जयंती, जो ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाई जाती है, उनकी साधना के लिए अत्यंत शुभ मानी जाती है। इसके अतिरिक्त, किसी भी महीने के कृष्ण पक्ष का शनिवार या गुप्त नवरात्रि भी इस साधना के लिए उपयुक्त समय हैं।
बीज मंत्र: धूं ।
मूल मंत्र: "धूं धूं धूमावती ठ: ठ:" अथवा "ॐ धूं धूं धूमावती देव्यै स्वाहा:" अथवा "ॐ धूं धूं धूमावत्यै फट्" ।
तांत्रिक मंत्र: "धूम्रा मतिव सतिव पूर्णात सा सायुग्मे। सौभाग्यदात्री सदैव करुणामयि:॥"।
ध्यान श्लोक: माँ धूमावती का ध्यान उनके उग्र, वृद्धा, विधवा, विवर्णा, चंचला, कृशकाय, बिखरे केशों वाली, हाथ में सूप धारण किए, कौवे के ध्वज वाले रथ पर आरूढ़, अत्यंत क्षुधातुर, कठोर नेत्रों वाली, कलहप्रिया और भयोत्पादक स्वरूप पर किया जाता है। उनके कवच में पिप्पलाद ऋषि, निवृत छंद और धूमावती देवता का उल्लेख है।
साधक को ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नान आदि से निवृत्त होकर स्वच्छ वस्त्र (प्रायः काले वस्त्र) धारण करने चाहिए । पूजा स्थल को गंगाजल से पवित्र करके, दक्षिण दिशा में लकड़ी की चौकी पर काला कपड़ा बिछाकर उस पर गीला नारियल (पानी वाला) या धूमावती यंत्र स्थापित करें। तेल का दीपक जलाएं। संकल्प, विनियोग, न्यास (जैसे पिप्पलाद ऋषि को शिर में, त्रिव्रत् छंद को मुख में, श्री ज्येष्ठा धूमावती देवता को हृदय में) करें । इसके बाद देवी का ध्यान करके धूप, दीप, चावल, पुष्प (सूखे फूल भी चढ़ाए जा सकते हैं) आदि से पूजन करें । निर्दिष्ट मंत्र का जाप (सामान्यतः 9, 11 या 21 दिन, प्रतिदिन निर्धारित संख्या में, जैसे 9 माला) करें। मंत्र जप संपन्न होने पर मंत्र का दशांश हवन काली मिर्च, काले तिल, घी और हवन सामग्री से करें।
सुहागिन महिलाओं को माँ धूमावती की पूजा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वे विधवा देवी मानी जाती हैं। साधक को साधना काल में पूर्ण सात्विक आचरण करना चाहिए, नियम-संयम का पालन करना चाहिए, सत्यनिष्ठ रहना चाहिए और लोभ-लालच से दूर रहना चाहिए । शराब और मांस का सेवन सर्वथा वर्जित है। साधना को गुप्त रखना चाहिए । पूजा के दौरान सफाई और स्नान का विशेष ध्यान रखना चाहिए, तथा काले वस्त्र और काले आसन का ही प्रयोग करना चाहिए। यह साधना, विशेषकर इसके उग्र रूप, वामाचारी प्रक्रिया से, घर से दूर, किसी योग्य गुरु के मार्गदर्शन में ही की जानी चाहिए। क्रोधित देवता की साधना में अत्यधिक सावधानी बरतनी चाहिए, क्योंकि भूल होने पर गंभीर परिणाम हो सकते हैं। काम, क्रोध, लोभ, मत्सर और अहंकार इन पाँच विकारों से साधक को मन से दूर रहना चाहिए।
माँ धूमावती अत्यंत उग्र कोटि की देवी हैं । उनका स्वरूप, पूजा विधान (जैसे श्मशान में साधना, अपवित्र वस्तुओं का संभावित प्रयोग) और संबद्धता (अलक्ष्मी, ज्येष्ठा) वामाचार की ओर प्रबल संकेत करते हैं। और स्पष्ट रूप से भैरवी, छिन्नमस्ता और धूमावती की पूजा को वामाचारी प्रक्रिया के अंतर्गत मानते हैं, जिसे घर से दूर और आत्म-साक्षात्कारी गुरु के निर्देशन में किया जाना चाहिए। में उन्हें "वाममार्गी तंत्र में सिद्धियों की प्राप्ति के लिए पूजित या भयभीत" बताया गया है। यद्यपि कुछ सौम्य प्रार्थनाएँ और स्तोत्र भी उपलब्ध हैं, उनकी मूल साधना प्रकृति में तांत्रिक और प्रायः वामाचारी है।
माँ धूमावती की साधना से शत्रुओं का पूर्ण नाश और स्तंभन होता है। यह साधना लंबे समय से चले आ रहे ऋणों से मुक्ति दिलाती है। दुर्भाग्य का नाश होकर सौभाग्य में परिवर्तन होता है, और गरीबी सदा के लिए दूर होती है । सभी प्रकार के संकटों, रोगों और बाधाओं का निवारण होता है। माँ धूमावती की कृपा से साधक को विभिन्न सिद्धियाँ, परम ज्ञान और अंततः मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है । साधक में निडरता, निश्चिंतता और आत्मबल का विकास होता है। यह साधना भूत-प्रेत, काले जादू और अन्य नकारात्मक शक्तियों से रक्षा करती है । धूमावती की साधना, जो अक्सर त्याग और कठोर नियमों से जुड़ी होती है, साधक को सांसारिक आसक्तियों से मुक्त करती है और उसे जीवन की क्षणभंगुरता का गहन ज्ञान कराती है, जिससे वैराग्य और सच्चे आध्यात्मिक ज्ञान का मार्ग प्रशस्त होता है। महाविद्याओं में उनका स्थान यह दर्शाता है कि तांत्रिक परंपरा जीवन के तथाकथित नकारात्मक पहलुओं (जैसे गरीबी, कुरूपता, हानि, अभाव) को भी दिव्यता के अनुभव और आध्यात्मिक विकास के साधन के रूप में देखती है, उन्हें दबाने या अनदेखा करने के बजाय।