माँ त्रिपुर सुंदरी, जिन्हें षोडशी (सोलह वर्षीय कन्या), ललिता (मनोहर लीला करने वाली), राजराजेश्वरी (समस्त ब्रह्मांड की साम्राज्ञी) और श्री विद्या के नाम से भी जाना जाता है, दस महाविद्याओं में सर्वाधिक सौम्य और सौंदर्यमयी देवी मानी जाती हैं । वे श्री कुल की अधिष्ठात्री देवी हैं और श्री विद्या साधना परंपरा की केंद्र बिंदु हैं । 'त्रिपुरा' शब्द का अर्थ है "तीन पुर या लोक" (स्वर्ग, पृथ्वी, पाताल) और 'सुंदरी' का अर्थ है "सौंदर्यमयी"। इस प्रकार, वे तीनों लोकों में सबसे सुंदर देवी हैं। वे सोलह कलाओं से परिपूर्ण हैं और भक्तों को मुक्ति प्रदान करने वाली देवी के रूप में पूजित हैं । वे स्वयं आदिशक्ति पार्वती का स्वरूप हैं । माँ त्रिपुर सुंदरी का वर्ण उदयकालीन सूर्य के समान अरुण या सिंदूरी है। वे सामान्यतः तीन नेत्रों और चार भुजाओं वाली चित्रित की जाती हैं, जिनमें वे पाश (मोह का प्रतीक), अंकुश (नियंत्रण का प्रतीक), इक्षु-धनुष (मन का प्रतीक) और पंच पुष्प-बाण (पांच ज्ञानेंद्रियों के विषयों के प्रतीक) धारण करती हैं । तंत्र शास्त्रों में उनके पाँच मुखों का भी वर्णन मिलता है, जो विभिन्न दिशाओं और तत्त्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं । श्री विद्या साधना अत्यंत व्यवस्थित और क्रमबद्ध है, जिसमें यंत्र (श्री चक्र), मंत्र (पञ्चदशी, षोडशी) और तंत्र (पूजा विधि, न्यास, मुद्रा) का एक जटिल और गहन समन्वय देखने को मिलता है। यह साधक को स्थूल जगत से सूक्ष्म जगत और अंततः परम चेतना तक ले जाने वाला एक क्रमिक और अनुभवात्मक मार्ग है।
माँ त्रिपुर सुंदरी के भैरव कामेश्वर या सदाशिव हैं। वे प्रायः भगवान शिव की गोद में या उन पर विराजमान चित्रित की जाती हैं, जो शिव और शक्ति की अभिन्नता और सृष्टि के मूल सिद्धांत को दर्शाता है।
श्री विद्या साधना एक अत्यंत गूढ़ और विस्तृत विषय है, जिसे कई चरणों में विभाजित किया गया है। यहाँ इसके मुख्य पहलुओं का संक्षिप्त विवरण दिया जा रहा है:
परिचय: श्री यंत्र, जिसे श्री चक्र भी कहा जाता है, माँ त्रिपुर सुंदरी का ज्यामितीय स्वरूप है और श्री विद्या उपासना का सबसे महत्वपूर्ण प्रतीक है। यह नौ अंतर्ग्रथित त्रिकोणों से निर्मित होता है, जिनमें से चार त्रिकोण ऊपर की ओर मुख किए होते हैं (शिव का प्रतीक) और पाँच त्रिकोण नीचे की ओर मुख किए होते हैं (शक्ति का प्रतीक)। इन त्रिकोणों के परस्पर प्रतिच्छेदन से कुल 43 छोटे त्रिकोण बनते हैं, जो एक केंद्रीय बिंदु (बिंदु) से विकीर्ण होते हैं । यह यंत्र संपूर्ण ब्रह्मांड और मानव शरीर का एक सूक्ष्म प्रतिनिधित्व माना जाता है।
निर्माण: श्री चक्र का निर्माण अत्यंत सटीक ज्यामितीय गणनाओं पर आधारित होता है और इसे विशेषज्ञ साधक या कलाकार ही सही ढंग से बना सकते हैं। इसे सामान्यतः तांबा, चांदी, सोना जैसी धातुओं पर उत्कीर्ण किया जाता है या स्फटिक जैसे रत्नों से निर्मित किया जाता है । इसका त्रि-आयामी स्वरूप 'मेरु' या 'महामेरु' कहलाता है।
नवआवरण पूजा: श्री चक्र की पूजा 'नवआवरण पूजा' कहलाती है, जिसमें चक्र के नौ आवरणों (स्तरों या घेरों) की क्रमशः पूजा की जाती है। प्रत्येक आवरण एक विशिष्ट देवी समूह, मुद्रा, योगिनी और माँ त्रिपुर सुंदरी के एक विशेष स्वरूप तथा उनके मंत्र से संबंधित होता है। यह पूजा अत्यंत विस्तृत होती है और इसमें गणपति पूजा, नवग्रह पूजा, देवी का आवाहन, विभिन्न न्यास (जैसे अंगन्यास, करन्यास, मातृका न्यास), विविध पूजन सामग्रियों (जैसे फूल, कुमकुम, हल्दी, चंदन, अक्षत, नैवेद्य) का समर्पण, ललिता सहस्रनाम और श्री सूक्त जैसे स्तोत्रों का पाठ, और अंत में आरती एवं पुष्पांजलि शामिल होती है। यह पूजा 3 से 5 घंटे या उससे भी अधिक समय तक चल सकती है। श्री चक्र पर ध्यान और नवआवरण पूजा साधक की चेतना को ब्रह्मांडीय ऊर्जा के विभिन्न स्तरों के साथ संरेखित करती है, जिससे आंतरिक शुद्धि और आध्यात्मिक शक्तियों का जागरण होता है। प्रत्येक आवरण की पूजा एक विशिष्ट बाधा को दूर करती है और साधक को एक नई सिद्धि या अनुभव प्रदान करती है।
पूजा सामग्री: श्री चक्र यंत्र, ताजे फूल (विशेषकर कमल, चमेली, गुलाब), फल, मिठाई, धूप, घी का दीपक, कुमकुम, हल्दी, चंदन का लेप, अक्षत, पंचामृत, नैवेद्य (जैसे चावल, दूध, घी, शहद, नारियल, खीर) आदि।
पञ्चदशी मंत्र: यह श्री विद्या का मूल मंत्र माना जाता है और पंद्रह बीज अक्षरों से मिलकर बना है: "क ए ई ल ह्रीं। ह स क ह ल ह्रीं। स क ल ह्रीं॥"। यह मंत्र अत्यंत गोपनीय है और केवल योग्य गुरु द्वारा दीक्षा के माध्यम से ही प्राप्त होता है। इसके तीन कूट (खंड) हैं – वाग्भव कूट (क ए ई ल ह्रीं), कामराज कूट (ह स क ह ल ह्रीं), और शक्ति कूट (स क ल ह्रीं)। ये क्रमशः ज्ञान, इच्छा और क्रिया शक्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं और शरीर के विभिन्न चक्रों से भी संबंधित माने जाते हैं। इस मंत्र का जाप मानसिक रूप से या अत्यंत धीमे स्वर में उच्चारण करते हुए किया जाता है।
षोडशी मंत्र: पञ्चदशी मंत्र में एक और रहस्यमयी बीज अक्षर (प्रायः 'श्रीं') जोड़ने पर षोडशी मंत्र (सोलह अक्षरों वाला) बनता है। यह मंत्र और भी अधिक गोपनीय और शक्तिशाली माना जाता है। षोडशी मंत्र के विभिन्न क्रम और स्वरूप भी प्रचलित हैं, जैसे पंचाक्षर षोडशी, षडाक्षर षोडशी आदि।
साधना विधि: श्री विद्या साधना गुरु परंपरा पर आधारित है, अतः गुरु से दीक्षा प्राप्त करना अनिवार्य है। साधक को उपयुक्त आसन (जैसे सिद्धासन, पद्मासन या स्वास्तिकासन) में बैठकर, मेरुदंड सीधा रखते हुए, दृष्टि को नासिकाग्र या भ्रूमध्य पर केंद्रित करना चाहिए। साधना का प्रारंभ गुरु ध्यान, गणपति पूजन और भैरव पूजन से होता है। इसके बाद देवी का आवाहन (प्रायः सुपारी में प्रतिष्ठित कर) किया जाता है और पंचोपचार या षोडशोपचार विधि से पूजन संपन्न होता है। फिर कमल गट्टे की माला या स्फटिक माला से निर्दिष्ट मंत्र का (जैसे 108 बार या गुरु द्वारा बताई गई संख्या में) जाप किया जाता है।
माँ त्रिपुर सुंदरी की पूजा के लिए शुक्रवार का दिन विशेष रूप से शुभ माना जाता है । इसके अतिरिक्त, गुप्त नवरात्रि, पूर्णिमा, और अन्य शुभ तिथियाँ भी उनकी साधना के लिए उपयुक्त होती हैं ।
पञ्चदशी मंत्र: "क ए ई ल ह्रीं। ह स क ह ल ह्रीं। स क ल ह्रीं॥"
षोडशी मंत्र (एक रूप): "श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं सौः ॐ ह्रीं श्रीं क ए ई ल ह्रीं ह स क ह ल ह्रीं स क ल ह्रीं सौः ऐं क्लीं ह्रीं श्रीं नमः।"।
त्रिपुर गायत्री मंत्र: "क्लीं त्रिपुरादेवि विद्महे कामेश्वरि धीमहि। तन्नः क्लिन्ने प्रचोदयात्॥"।
ध्यान श्लोक (उदाहरण):
(अर्थ: दस सहस्र बाल सूर्यों के समान तेज वाली, तीन नेत्रों से युक्त, रक्तिम वस्त्रों से सुशोभित, विविध अलंकारों से जिनका श्रीविग्रह देदीप्यमान है, मस्तक पर अर्धचंद्र धारण की हुईं, जो अपने करकमलों में ईख का धनुष, अंकुश, पुष्पबाण और पाश प्रसन्नतापूर्वक धारण करती हैं, श्रीचक्र पर विराजमान उन त्रिपुर सुंदरी का, जो तीनों लोकों की आधारभूता हैं, मैं स्मरण करता हूँ।) अन्य ध्यान श्लोक में भी वर्णित हैं।
जैसा कि ऊपर वर्णित है, श्री विद्या पूजा अत्यंत विस्तृत है और इसमें गुरु द्वारा निर्दिष्ट क्रम का पालन किया जाता है। इसमें आवाहन, आसन, पाद्य, अर्घ्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, आभूषण, गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य और ताम्बूल आदि उपचार शामिल होते हैं। न्यास, मुद्राएँ और विशेष मंत्रों का पाठ भी इसका अभिन्न अंग है।
श्री विद्या साधना केवल गुरु परंपरा से ही सीखनी चाहिए । मंत्र का अर्थ, प्रत्येक अक्षर की शक्ति और साधना के विभिन्न क्रमों (जैसे सृष्टि क्रम, स्थिति क्रम, संहार क्रम) को गुरु से समझना अत्यंत महत्वपूर्ण है । साधना के दौरान पवित्रता, एकाग्रता और पूर्ण श्रद्धा बनाए रखना आवश्यक है।
श्री विद्या साधना में दोनों ही मार्ग पाए जाते हैं । दक्षिणाचार (जिसे समयाचार भी कहा जाता है) अधिक सात्विक और वैदिक अनुष्ठानों के अनुरूप होता है, जिसमें आंतरिक पूजा और ध्यान पर अधिक बल दिया जाता है। वामाचार (जिसे कौलाचार भी कहा जाता है) में पंचमकार का शाब्दिक या प्रतीकात्मक प्रयोग हो सकता है और यह अधिक गूढ़ माना जाता है । अधिकांश श्री विद्या ग्रंथ दक्षिणाचार पर केंद्रित हैं, लेकिन कुछ तांत्रिक परंपराओं में कौलाचार को भी सर्वोच्च स्थान दिया गया है । यह साधक की पात्रता और गुरु के निर्देश पर निर्भर करता है कि वह किस मार्ग का अनुसरण करता है।
माँ त्रिपुर सुंदरी की साधना से साधक को भौतिक संपन्नता, अनुपम रूप-सौंदर्य और यौवन की प्राप्ति होती है। यह साधना सुखी वैवाहिक जीवन प्रदान करती है और मन पर नियंत्रण स्थापित करने में सहायक होती है, जिससे आत्मिक शांति मिलती है । उनकी कृपा से सभी प्रकार की संपत्ति, समृद्धि और पारिवारिक सद्भाव की प्राप्ति होती है । श्री विद्या साधक को भोग और मोक्ष दोनों ही प्रदान करने में सक्षम है । इसके अतिरिक्त, यह साधना अणिमा आदि अष्ट सिद्धियों को भी प्रदान कर सकती है । श्री विद्या साधना का द्वैत और अद्वैत दोनों दृष्टिकोणों को समायोजित करना (भौतिक समृद्धि और आत्म-साक्षात्कार दोनों प्रदान करना) हिंदू दर्शन की समग्र प्रकृति को दर्शाता है, जो जीवन के सभी पहलुओं को आध्यात्मिक मार्ग में एकीकृत करता है, न कि उनका त्याग करता है।
श्री विद्या साधना से संबंधित प्रमुख प्रामाणिक ग्रंथों में ललिता सहस्रनाम, सौंदर्य लहरी, परशुराम कल्पसूत्र, विभिन्न तंत्र ग्रंथ जैसे तंत्रराज, ज्ञानार्णव, वामकेश्वर तंत्र, और त्रिपुरा रहस्य शामिल हैं। इसके अतिरिक्त, अनेक उपनिषद जैसे त्रिपुरा उपनिषद, भावना उपनिषद, बह्वृचोपनिषद आदि भी श्री विद्या के दार्शनिक और साधनात्मक पहलुओं पर प्रकाश डालते हैं।
माँ त्रिपुर सुंदरी, जिन्हें षोडशी (सोलह वर्षीय कन्या), ललिता (मनोहर लीला करने वाली), राजराजेश्वरी (समस्त ब्रह्मांड की साम्राज्ञी) और श्री विद्या के नाम से भी जाना जाता है, दस महाविद्याओं में सर्वाधिक सौम्य और सौंदर्यमयी देवी मानी जाती हैं । वे श्री कुल की अधिष्ठात्री देवी हैं और श्री विद्या साधना परंपरा की केंद्र बिंदु हैं । 'त्रिपुरा' शब्द का अर्थ है "तीन पुर या लोक" (स्वर्ग, पृथ्वी, पाताल) और 'सुंदरी' का अर्थ है "सौंदर्यमयी"। इस प्रकार, वे तीनों लोकों में सबसे सुंदर देवी हैं। वे सोलह कलाओं से परिपूर्ण हैं और भक्तों को मुक्ति प्रदान करने वाली देवी के रूप में पूजित हैं । वे स्वयं आदिशक्ति पार्वती का स्वरूप हैं । माँ त्रिपुर सुंदरी का वर्ण उदयकालीन सूर्य के समान अरुण या सिंदूरी है। वे सामान्यतः तीन नेत्रों और चार भुजाओं वाली चित्रित की जाती हैं, जिनमें वे पाश (मोह का प्रतीक), अंकुश (नियंत्रण का प्रतीक), इक्षु-धनुष (मन का प्रतीक) और पंच पुष्प-बाण (पांच ज्ञानेंद्रियों के विषयों के प्रतीक) धारण करती हैं । तंत्र शास्त्रों में उनके पाँच मुखों का भी वर्णन मिलता है, जो विभिन्न दिशाओं और तत्त्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं । श्री विद्या साधना अत्यंत व्यवस्थित और क्रमबद्ध है, जिसमें यंत्र (श्री चक्र), मंत्र (पञ्चदशी, षोडशी) और तंत्र (पूजा विधि, न्यास, मुद्रा) का एक जटिल और गहन समन्वय देखने को मिलता है। यह साधक को स्थूल जगत से सूक्ष्म जगत और अंततः परम चेतना तक ले जाने वाला एक क्रमिक और अनुभवात्मक मार्ग है।
माँ त्रिपुर सुंदरी के भैरव कामेश्वर या सदाशिव हैं। वे प्रायः भगवान शिव की गोद में या उन पर विराजमान चित्रित की जाती हैं, जो शिव और शक्ति की अभिन्नता और सृष्टि के मूल सिद्धांत को दर्शाता है।
श्री विद्या साधना एक अत्यंत गूढ़ और विस्तृत विषय है, जिसे कई चरणों में विभाजित किया गया है। यहाँ इसके मुख्य पहलुओं का संक्षिप्त विवरण दिया जा रहा है:
परिचय: श्री यंत्र, जिसे श्री चक्र भी कहा जाता है, माँ त्रिपुर सुंदरी का ज्यामितीय स्वरूप है और श्री विद्या उपासना का सबसे महत्वपूर्ण प्रतीक है। यह नौ अंतर्ग्रथित त्रिकोणों से निर्मित होता है, जिनमें से चार त्रिकोण ऊपर की ओर मुख किए होते हैं (शिव का प्रतीक) और पाँच त्रिकोण नीचे की ओर मुख किए होते हैं (शक्ति का प्रतीक)। इन त्रिकोणों के परस्पर प्रतिच्छेदन से कुल 43 छोटे त्रिकोण बनते हैं, जो एक केंद्रीय बिंदु (बिंदु) से विकीर्ण होते हैं । यह यंत्र संपूर्ण ब्रह्मांड और मानव शरीर का एक सूक्ष्म प्रतिनिधित्व माना जाता है।
निर्माण: श्री चक्र का निर्माण अत्यंत सटीक ज्यामितीय गणनाओं पर आधारित होता है और इसे विशेषज्ञ साधक या कलाकार ही सही ढंग से बना सकते हैं। इसे सामान्यतः तांबा, चांदी, सोना जैसी धातुओं पर उत्कीर्ण किया जाता है या स्फटिक जैसे रत्नों से निर्मित किया जाता है । इसका त्रि-आयामी स्वरूप 'मेरु' या 'महामेरु' कहलाता है।
नवआवरण पूजा: श्री चक्र की पूजा 'नवआवरण पूजा' कहलाती है, जिसमें चक्र के नौ आवरणों (स्तरों या घेरों) की क्रमशः पूजा की जाती है। प्रत्येक आवरण एक विशिष्ट देवी समूह, मुद्रा, योगिनी और माँ त्रिपुर सुंदरी के एक विशेष स्वरूप तथा उनके मंत्र से संबंधित होता है। यह पूजा अत्यंत विस्तृत होती है और इसमें गणपति पूजा, नवग्रह पूजा, देवी का आवाहन, विभिन्न न्यास (जैसे अंगन्यास, करन्यास, मातृका न्यास), विविध पूजन सामग्रियों (जैसे फूल, कुमकुम, हल्दी, चंदन, अक्षत, नैवेद्य) का समर्पण, ललिता सहस्रनाम और श्री सूक्त जैसे स्तोत्रों का पाठ, और अंत में आरती एवं पुष्पांजलि शामिल होती है। यह पूजा 3 से 5 घंटे या उससे भी अधिक समय तक चल सकती है। श्री चक्र पर ध्यान और नवआवरण पूजा साधक की चेतना को ब्रह्मांडीय ऊर्जा के विभिन्न स्तरों के साथ संरेखित करती है, जिससे आंतरिक शुद्धि और आध्यात्मिक शक्तियों का जागरण होता है। प्रत्येक आवरण की पूजा एक विशिष्ट बाधा को दूर करती है और साधक को एक नई सिद्धि या अनुभव प्रदान करती है।
पूजा सामग्री: श्री चक्र यंत्र, ताजे फूल (विशेषकर कमल, चमेली, गुलाब), फल, मिठाई, धूप, घी का दीपक, कुमकुम, हल्दी, चंदन का लेप, अक्षत, पंचामृत, नैवेद्य (जैसे चावल, दूध, घी, शहद, नारियल, खीर) आदि।
पञ्चदशी मंत्र: यह श्री विद्या का मूल मंत्र माना जाता है और पंद्रह बीज अक्षरों से मिलकर बना है: "क ए ई ल ह्रीं। ह स क ह ल ह्रीं। स क ल ह्रीं॥"। यह मंत्र अत्यंत गोपनीय है और केवल योग्य गुरु द्वारा दीक्षा के माध्यम से ही प्राप्त होता है। इसके तीन कूट (खंड) हैं – वाग्भव कूट (क ए ई ल ह्रीं), कामराज कूट (ह स क ह ल ह्रीं), और शक्ति कूट (स क ल ह्रीं)। ये क्रमशः ज्ञान, इच्छा और क्रिया शक्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं और शरीर के विभिन्न चक्रों से भी संबंधित माने जाते हैं। इस मंत्र का जाप मानसिक रूप से या अत्यंत धीमे स्वर में उच्चारण करते हुए किया जाता है।
षोडशी मंत्र: पञ्चदशी मंत्र में एक और रहस्यमयी बीज अक्षर (प्रायः 'श्रीं') जोड़ने पर षोडशी मंत्र (सोलह अक्षरों वाला) बनता है। यह मंत्र और भी अधिक गोपनीय और शक्तिशाली माना जाता है। षोडशी मंत्र के विभिन्न क्रम और स्वरूप भी प्रचलित हैं, जैसे पंचाक्षर षोडशी, षडाक्षर षोडशी आदि।
साधना विधि: श्री विद्या साधना गुरु परंपरा पर आधारित है, अतः गुरु से दीक्षा प्राप्त करना अनिवार्य है। साधक को उपयुक्त आसन (जैसे सिद्धासन, पद्मासन या स्वास्तिकासन) में बैठकर, मेरुदंड सीधा रखते हुए, दृष्टि को नासिकाग्र या भ्रूमध्य पर केंद्रित करना चाहिए। साधना का प्रारंभ गुरु ध्यान, गणपति पूजन और भैरव पूजन से होता है। इसके बाद देवी का आवाहन (प्रायः सुपारी में प्रतिष्ठित कर) किया जाता है और पंचोपचार या षोडशोपचार विधि से पूजन संपन्न होता है। फिर कमल गट्टे की माला या स्फटिक माला से निर्दिष्ट मंत्र का (जैसे 108 बार या गुरु द्वारा बताई गई संख्या में) जाप किया जाता है।
माँ त्रिपुर सुंदरी की पूजा के लिए शुक्रवार का दिन विशेष रूप से शुभ माना जाता है । इसके अतिरिक्त, गुप्त नवरात्रि, पूर्णिमा, और अन्य शुभ तिथियाँ भी उनकी साधना के लिए उपयुक्त होती हैं ।
पञ्चदशी मंत्र: "क ए ई ल ह्रीं। ह स क ह ल ह्रीं। स क ल ह्रीं॥"
षोडशी मंत्र (एक रूप): "श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं सौः ॐ ह्रीं श्रीं क ए ई ल ह्रीं ह स क ह ल ह्रीं स क ल ह्रीं सौः ऐं क्लीं ह्रीं श्रीं नमः।"।
त्रिपुर गायत्री मंत्र: "क्लीं त्रिपुरादेवि विद्महे कामेश्वरि धीमहि। तन्नः क्लिन्ने प्रचोदयात्॥"।
ध्यान श्लोक (उदाहरण):
(अर्थ: दस सहस्र बाल सूर्यों के समान तेज वाली, तीन नेत्रों से युक्त, रक्तिम वस्त्रों से सुशोभित, विविध अलंकारों से जिनका श्रीविग्रह देदीप्यमान है, मस्तक पर अर्धचंद्र धारण की हुईं, जो अपने करकमलों में ईख का धनुष, अंकुश, पुष्पबाण और पाश प्रसन्नतापूर्वक धारण करती हैं, श्रीचक्र पर विराजमान उन त्रिपुर सुंदरी का, जो तीनों लोकों की आधारभूता हैं, मैं स्मरण करता हूँ।) अन्य ध्यान श्लोक में भी वर्णित हैं।
जैसा कि ऊपर वर्णित है, श्री विद्या पूजा अत्यंत विस्तृत है और इसमें गुरु द्वारा निर्दिष्ट क्रम का पालन किया जाता है। इसमें आवाहन, आसन, पाद्य, अर्घ्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, आभूषण, गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य और ताम्बूल आदि उपचार शामिल होते हैं। न्यास, मुद्राएँ और विशेष मंत्रों का पाठ भी इसका अभिन्न अंग है।
श्री विद्या साधना केवल गुरु परंपरा से ही सीखनी चाहिए । मंत्र का अर्थ, प्रत्येक अक्षर की शक्ति और साधना के विभिन्न क्रमों (जैसे सृष्टि क्रम, स्थिति क्रम, संहार क्रम) को गुरु से समझना अत्यंत महत्वपूर्ण है । साधना के दौरान पवित्रता, एकाग्रता और पूर्ण श्रद्धा बनाए रखना आवश्यक है।
श्री विद्या साधना में दोनों ही मार्ग पाए जाते हैं । दक्षिणाचार (जिसे समयाचार भी कहा जाता है) अधिक सात्विक और वैदिक अनुष्ठानों के अनुरूप होता है, जिसमें आंतरिक पूजा और ध्यान पर अधिक बल दिया जाता है। वामाचार (जिसे कौलाचार भी कहा जाता है) में पंचमकार का शाब्दिक या प्रतीकात्मक प्रयोग हो सकता है और यह अधिक गूढ़ माना जाता है । अधिकांश श्री विद्या ग्रंथ दक्षिणाचार पर केंद्रित हैं, लेकिन कुछ तांत्रिक परंपराओं में कौलाचार को भी सर्वोच्च स्थान दिया गया है । यह साधक की पात्रता और गुरु के निर्देश पर निर्भर करता है कि वह किस मार्ग का अनुसरण करता है।
माँ त्रिपुर सुंदरी की साधना से साधक को भौतिक संपन्नता, अनुपम रूप-सौंदर्य और यौवन की प्राप्ति होती है। यह साधना सुखी वैवाहिक जीवन प्रदान करती है और मन पर नियंत्रण स्थापित करने में सहायक होती है, जिससे आत्मिक शांति मिलती है । उनकी कृपा से सभी प्रकार की संपत्ति, समृद्धि और पारिवारिक सद्भाव की प्राप्ति होती है । श्री विद्या साधक को भोग और मोक्ष दोनों ही प्रदान करने में सक्षम है । इसके अतिरिक्त, यह साधना अणिमा आदि अष्ट सिद्धियों को भी प्रदान कर सकती है । श्री विद्या साधना का द्वैत और अद्वैत दोनों दृष्टिकोणों को समायोजित करना (भौतिक समृद्धि और आत्म-साक्षात्कार दोनों प्रदान करना) हिंदू दर्शन की समग्र प्रकृति को दर्शाता है, जो जीवन के सभी पहलुओं को आध्यात्मिक मार्ग में एकीकृत करता है, न कि उनका त्याग करता है।
श्री विद्या साधना से संबंधित प्रमुख प्रामाणिक ग्रंथों में ललिता सहस्रनाम, सौंदर्य लहरी, परशुराम कल्पसूत्र, विभिन्न तंत्र ग्रंथ जैसे तंत्रराज, ज्ञानार्णव, वामकेश्वर तंत्र, और त्रिपुरा रहस्य शामिल हैं। इसके अतिरिक्त, अनेक उपनिषद जैसे त्रिपुरा उपनिषद, भावना उपनिषद, बह्वृचोपनिषद आदि भी श्री विद्या के दार्शनिक और साधनात्मक पहलुओं पर प्रकाश डालते हैं।