मंत्र सिद्धि: पढ़िए और जानिए सनातन शास्त्रों में वर्णित साधना के गुप्त रहस्य, गुरु कृपा और सिद्धि की अद्भुत प्रक्रिया

मंत्र सिद्धि का देवपथ: सनातन शास्त्रों के आलोक में साधना के गुप्त विधान
प्रस्तावना: शब्द-ब्रह्म का आह्वान
सनातन धर्म की ज्ञान-गंगा में 'मंत्र' एक शब्द मात्र नहीं, अपितु स्वयं शब्द-ब्रह्म का साकार स्वरूप है। हमारे ऋषियों ने गहन तप और साधना के बल पर यह अनुभव किया कि ध्वनि, ऊर्जा का ही एक रूप है और जब इस ध्वनि को विशिष्ट अक्षरों, स्वरों और लय में संयोजित किया जाता है, तो वह ब्रह्मांडीय चेतना से संपर्क स्थापित करने का एक शक्तिशाली माध्यम बन जाती है । शास्त्रों में मंत्र की परिभाषा करते हुए कहा गया है -
"मननात् त्रायते इति मंत्रः"
अर्थात्, जिसके मनन, चिंतन और सतत अभ्यास से साधक का त्राण हो, जो उसे भव-बंधनों से मुक्त करे, वही मंत्र है। यह परिभाषा स्वयं में मंत्र के दोहरे कार्य को प्रकट करती है: एक आंतरिक प्रक्रिया (मनन) जो चित्त को शुद्ध और एकाग्र करती है, और दूसरा उसका परिणाम (त्राण) जो साधक को सांसारिक दुःखों और सीमाओं से परे ले जाकर उसकी रक्षा करता है।
इस प्रकार, मंत्र केवल कुछ शब्दों का दोहराव नहीं, अपितु देवता का सूक्ष्म, नाद-मय शरीर है। जब एक साधक पूर्ण श्रद्धा और विधि-विधान से मंत्र का अनुष्ठान करता है, तो वह उस मंत्र की अधिष्ठात्री दैवीय शक्ति को जाग्रत कर लेता है। इसी अवस्था को 'मंत्र सिद्धि' कहा जाता है। यह कोई चमत्कार या जादू नहीं, बल्कि एक गहन आध्यात्मिक विज्ञान है, जिसके नियम और पद्धतियाँ वेदों, पुराणों, आगम और तंत्र शास्त्रों में विस्तार से वर्णित हैं। यह लेख साधकों के मार्गदर्शन हेतु, उन्हीं शास्त्र-सम्मत विधानों को श्रद्धा भाव से प्रस्तुत करने का एक विनम्र प्रयास है, ताकि वे मंत्र साधना के इस पवित्र मार्ग पर चलकर अपने अभीष्ट को प्राप्त कर सकें।
प्रथम सोपान: गुरु कृपा हि केवलम्
मंत्र साधना का मार्ग गहन और रहस्यों से परिपूर्ण है। इस पथ पर साधक का सबसे बड़ा संबल गुरु की कृपा होती है। शिव पुराण और रुद्रयामल जैसे महान तंत्र ग्रंथ एक स्वर में यह उद्घोष करते हैं कि गुरु के बिना ज्ञान और सिद्धि दोनों ही अप्राप्य हैं । गुरु ही शिष्य के अज्ञान रूपी अंधकार को अपने ज्ञान के प्रकाश से नष्ट करते हैं और उसे साधना के विघ्नों से बचाते हैं ।
साधना का आरंभ 'दीक्षा' से होता है। दीक्षा केवल कान में मंत्र फूंकने की प्रक्रिया नहीं, अपितु गुरु द्वारा अपनी आध्यात्मिक ऊर्जा का एक अंश शिष्य के अंतःकरण में स्थापित करने की एक गहन प्रक्रिया है, जिसे 'शक्तिपात' भी कहते हैं । गुरु शिष्य की पात्रता, प्रकृति और संस्कारों को देखकर उसके लिए सर्वाधिक उपयुक्त मंत्र का चयन करते हैं । महत्वपूर्ण बात यह है कि गुरु जब कोई मंत्र प्रदान करते हैं, तो वे उसे अपने तप-बल से कीलन, शाप आदि दोषों से मुक्त करके, अर्थात 'उत्कीलन' करके ही शिष्य को देते हैं । गुरु-मुख से प्राप्त मंत्र चैतन्य और जाग्रत होता है, जिससे शिष्य का मार्ग सरल हो जाता है।
द्वितीय सोपान: साधक की पात्रता एवं आचरण-शुद्धि
जिस प्रकार एक अशुद्ध पात्र में रखा गया अमृत भी विष बन जाता है, उसी प्रकार अपवित्र शरीर और मन से की गई साधना सिद्धि प्रदान नहीं कर सकती। मंत्र की दिव्य ऊर्जा को धारण करने के लिए साधक को अपने तन, मन और आचरण को शुद्ध करना अनिवार्य है। यह शुद्धि केवल नैतिक उपदेश नहीं, बल्कि साधना का वैज्ञानिक आधार है। इसे एक प्रकार की "ऊर्जात्मक स्वच्छता" समझना चाहिए, जो साधक के शरीर-मन रूपी यंत्र को मंत्र की उच्च आवृत्ति के साथ अनुनाद करने के योग्य बनाती है।
शारीरिक शुद्धि
साधना काल में ब्रह्मचर्य का पालन अनिवार्य माना गया है, क्योंकि यह शारीरिक ऊर्जा का संरक्षण कर उसे ऊर्ध्वगामी बनाता है। भोजन सात्विक, हल्का और सुपाच्य होना चाहिए (अल्पाहारी)। मांस, मदिरा, लहसुन, प्याज जैसे तामसिक और राजसिक पदार्थ शरीर में जड़ता और चंचलता उत्पन्न करते हैं, जो ध्यान में बाधक हैं, अतः इनका पूर्ण त्याग आवश्यक है।
मानसिक एवं वाचिक शुद्धि
साधक को सत्य भाषण का व्रत लेना चाहिए और कटु वचनों का त्याग करना चाहिए। साधना काल में यथासंभव मौन रहना सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि यह वाणी की ऊर्जा को संचित करता है। क्रोध, ईर्ष्या, लोभ, मोह और व्यर्थ की चिंता जैसे मानसिक विकार ऊर्जा का क्षय करते हैं और मन को अशुद्ध बनाते हैं। इन विकारों से बचकर मन में अपने इष्टदेव के प्रति अटूट श्रद्धा, विश्वास और प्रेम का भाव रखना चाहिए।
आचरण की शुद्धि
साधना काल में भूमि पर शयन, श्रृंगार-प्रसाधनों का त्याग और विलासितापूर्ण जीवन से दूरी साधक की इंद्रियों को संयमित करती है । सबसे महत्वपूर्ण नियमों में से एक है अपनी साधना को अत्यंत गुप्त रखना। इसका किसी के भी समक्ष वर्णन या प्रदर्शन करने से साधना की ऊर्जा क्षीण हो जाती है और अहंकार का भाव उत्पन्न हो सकता है, जो पतन का कारण बनता है 16।
तृतीय सोपान: साधना का शास्त्रीय आरम्भ
आचरण की शुद्धि के उपरांत, साधक को शास्त्र निर्देशित विधि से अनुष्ठान का आरम्भ करना चाहिए। इसमें स्थान, काल, दिशा, आसन और संकल्प का विशेष महत्व होता है।
स्थान, काल और दिशा: साधना के लिए ऐसा स्थान चुनना चाहिए जो शांत, स्वच्छ और निर्विघ्न हो, जैसे कोई देवालय, नदी का तट, पर्वत की गुफा या घर का एकांत पूजा-कक्ष। समय के लिए ब्रह्म मुहूर्त (सूर्योदय से लगभग डेढ़ घंटा पूर्व) को सर्वश्रेष्ठ माना गया है, क्योंकि उस समय वातावरण में सात्विक ऊर्जा की प्रधानता होती है । इसके अतिरिक्त सूर्य या चंद्र ग्रहण जैसे पर्व काल में किया गया जप कई गुना अधिक फलदायी होता है। साधक को कुशा या ऊन के आसन पर बैठकर अपना मुख पूर्व या उत्तर दिशा की ओर रखना चाहिए।
संकल्प का विधान: किसी भी अनुष्ठान या जप के आरम्भ में 'संकल्प' लेना अनिवार्य है। संकल्प के बिना किया गया कर्म दिशाहीन और निष्फल हो सकता है। संकल्प में साधक दाहिने हाथ में जल, अक्षत और पुष्प लेकर देश, काल, अपना नाम, गोत्र, अनुष्ठान का उद्देश्य (जैसे- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति या किसी विशेष कामना की पूर्ति) और मंत्र की जप-संख्या का स्पष्ट उच्चारण करके उस जल को भूमि पर छोड़ता है। यह एक प्रकार से साधक और ब्रह्मांडीय शक्तियों के मध्य एक अनुबंध है।
भूत शुद्धि एवं पवित्रीकरण: जप आरम्भ करने से पूर्व 'भूत शुद्धि' की क्रिया की जाती है। इसका उद्देश्य पंच-तत्वों से बने इस शरीर को साधना के योग्य बनाना है। आचमन (मंत्रों के साथ जल पीना) और प्राणायाम के माध्यम से साधक अपने देह को आंतरिक रूप से शुद्ध करता है, ताकि वह दैवीय ऊर्जा को ग्रहण करने के लिए तैयार हो सके 27।
चतुर्थ सोपान: मंत्र-चेतना का जागरण
तंत्र शास्त्रों में यह रहस्य वर्णित है कि कलियुग में सामान्य मनुष्यों की पात्रता में कमी को देखते हुए, भगवान शिव तथा अन्य देवताओं ने अनेक शक्तिशाली मंत्रों को कीलित या शापित कर दिया है, ताकि कोई अयोग्य व्यक्ति उनका दुरुपयोग करके स्वयं की या समाज की हानि न कर सके। अतः, यदि मंत्र गुरु-मुख से प्राप्त न हुआ हो, तो उसे सिद्ध करने से पहले इन दोषों का निवारण करना आवश्यक है। यह प्रक्रिया एक प्रकार से "आध्यात्मिक प्रामाणिकता की जाँच" है, जो यह सुनिश्चित करती है कि साधक उस मंत्र को केवल लापरवाही से नहीं, बल्कि पूर्ण सम्मान और प्रक्रिया के ज्ञान के साथ ग्रहण कर रहा है।
शापोद्धार: इसका अर्थ है मंत्र को लगे हुए शाप से मुक्त करना। इसके लिए मूल मंत्र के जप से पूर्व और पश्चात् एक विशिष्ट "शापोद्धार मंत्र" का जाप किया जाता है। उदाहरण के लिए, दुर्गा सप्तशती के पाठ से पहले उसके शापोद्धार का विधान है, जिसके बिना उसका पूर्ण फल प्राप्त नहीं होता।
उत्कीलन: इसका अर्थ है मंत्र पर लगी कील को खोलना, जिससे उसकी सुप्त शक्ति प्रकट हो सके। इसके लिए भी एक विशिष्ट "उत्कीलन मंत्र" का जाप मूल मंत्र के अनुष्ठान के आदि और अंत में किया जाता है।
इन प्रक्रियाओं का उद्देश्य मंत्र को मात्र जड़ अक्षरों के समूह से एक चैतन्य और जीवंत शक्ति में रूपांतरित करना है। यह मंत्र और साधक के मध्य एक सजीव संबंध स्थापित करता है, जिससे मंत्र साधक के कल्याण के लिए कार्य करना आरम्भ कर देता है।
पंचम सोपान: पुरश्चरण - सिद्धि का महायज्ञ
'पुरश्चरण' मंत्र सिद्धि की सबसे प्रामाणिक और पूर्ण शास्त्रीय विधि है। इसका अर्थ है- किसी मंत्र का विधिपूर्वक अनुष्ठान करना। इसके पाँच अंग होते हैं, जिन्हें 'पंचांग' कहा जाता है। इन पाँचों अंगों को मिलाकर ही एक पुरश्चरण पूर्ण होता है। यह एक सम्पूर्ण आध्यात्मिक यज्ञ है, जो साधक को मंत्र-देवता की कृपा का पात्र बनाता है।
पुरश्चरण के पंचांग
पुरश्चरण की विधि गणितीय रूप से अत्यंत सटीक है। इसका आधार 'दशांश' अर्थात दसवां हिस्सा है।
अंग | क्रिया | संख्या | शास्त्रीय आधार |
---|---|---|---|
1. जप | मूल मंत्र का जाप | (उदाहरण) 1,25,000 | पुरश्चरण का आधार |
2. होम | मंत्र से आहुति | जप का दशांश (12,500) | अग्नि द्वारा देवता को ऊर्जा अर्पण |
3. तर्पण | जल से तर्पण | होम का दशांश (1,250) | देवता, ऋषि, पितरों की तृप्ति |
4. मार्जन | जल से अभिषेक/सिंचन | तर्पण का दशांश (125) | आत्म-शुद्धि एवं पवित्रीकरण |
5. ब्राह्मण भोजन | साधु/ब्राह्मण को भोजन | मार्जन का दशांश (12−13) | यज्ञ-फल का सामाजिक विस्तार |
यह विधान स्पष्ट करता है कि मंत्र साधना केवल व्यक्तिगत जप तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें अग्नि, जल जैसे पंच-तत्वों को साक्षी बनाया जाता है और अंत में समाज के प्रतिनिधि स्वरूप ब्राह्मणों या दीनों को भोजन कराकर यज्ञ को पूर्णता प्रदान की जाती है।
जप के प्रकार एवं श्रेष्ठता
शास्त्रों में जप के तीन मुख्य प्रकार बताए गए हैं, जिनके फल में भी भिन्नता है:
वाचिक जप: ऊँचे स्वर में स्पष्ट शब्दों में मंत्र का उच्चारण करना। यह मन को एकाग्र करने की प्रारंभिक अवस्था है।
उपांशु जप: इसमें जिह्वा और होंठ हिलते हैं, परंतु ध्वनि इतनी धीमी होती है कि पास बैठा व्यक्ति भी उसे सुन नहीं पाता। यह वाचिक जप से सौ गुना अधिक फलदायी माना गया है।
मानसिक जप (मानस जप): इसमें होंठ या जिह्वा नहीं हिलते। साधक मन-ही-मन मंत्र के स्वरूप और उसके अर्थ का चिंतन करता है। यह जप का सर्वश्रेष्ठ प्रकार है और उपांशु जप से भी हज़ार गुना अधिक शक्तिशाली माना जाता है।
षष्ठम सोपान: देव-भाव की प्रतिष्ठा
सनातन उपासना का मूल सिद्धांत है - "देवो भूत्वा देवं यजेत्" अर्थात देवता बनकर ही देवता की पूजा करनी चाहिए । साधक का शरीर जब तक स्वयं देव-तुल्य और मंत्रमय न हो जाए, तब तक वह उस दिव्य चेतना का आह्वान करने का पूर्ण अधिकारी नहीं बनता। इस देव-भाव को प्रतिष्ठित करने के लिए न्यास, मुद्रा और यंत्र पूजन का विधान है। ये क्रियाएं साधना को केवल एक मानसिक या वाचिक अभ्यास से ऊपर उठाकर एक संपूर्ण कायिक, वाचिक और मानसिक अनुभव में बदल देती हैं, जिससे साधक की चेतना का रूपांतरण तीव्र गति से होता है।
न्यास का विज्ञान: न्यास का अर्थ है 'स्थापना'। इस क्रिया में साधक मंत्र के ऋषि, छंद, देवता, बीज, शक्ति और कीलक को तथा मंत्र के अक्षरों को अपने शरीर के विभिन्न अंगों (जैसे- सिर, मुख, हृदय, हाथ, उंगलियाँ आदि) पर स्पर्श करते हुए स्थापित करता है। इसे 'अंगन्यास' और 'करन्यास' कहते हैं। इससे साधक का स्थूल शरीर भी मंत्र-शक्ति से अभिमंत्रित होकर एक दिव्य यंत्र बन जाता है।
मुद्राओं का महत्व: मुद्राएँ हाथों की उंगलियों से बनाई गई विशेष आकृतियाँ हैं। प्रत्येक मुद्रा शरीर में ऊर्जा के प्रवाह को एक विशेष प्रकार से निर्देशित करती है और ब्रह्मांडीय ऊर्जा को आकर्षित करने का कार्य करती है। पूजन और जप के समय इष्टदेव से संबंधित मुद्राओं का प्रदर्शन करने से देवता शीघ्र प्रसन्न होते हैं और साधक का उनसे तादात्म्य स्थापित होता है।
यंत्र पूजन का विधान: यदि मंत्र देवता की आत्मा है, तो यंत्र उनका ज्यामितीय शरीर है । यंत्र दिव्य शक्तियों का एक संग्रहीत ऊर्जा-केंद्र होता है। प्राण-प्रतिष्ठित यंत्र को सम्मुख रखकर उस पर ध्यान केंद्रित करने और उसका पूजन करने से मन की चंचलता समाप्त होती है और देवता की शक्ति उस यंत्र में घनीभूत हो जाती है, जिससे साधक को शीघ्र कृपा प्राप्त होती है।
सप्तम सोपान: विघ्न-नाश एवं सिद्धि के लक्षण
मंत्र साधना का मार्ग तप का मार्ग है और इस पर विघ्न-बाधाओं का आना स्वाभाविक है। ये विघ्न साधक के पूर्व कर्मों, मानसिक दुर्बलता या बाहरी आसुरी शक्तियों के कारण उत्पन्न हो सकते हैं। इनमें आलस्य, निद्रा, रोग, मन में संशय उत्पन्न होना, साधना के प्रति अरुचि, या भयानक दृश्य दिखाई देना प्रमुख हैं। इन विघ्नों से भयभीत नहीं होना चाहिए। गुरु के मार्गदर्शन, इष्टदेव पर अटूट विश्वास, धैर्य और निरंतर अभ्यास से इन सभी पर विजय प्राप्त की जा सकती है।
जब साधक इन विघ्नों को पार कर लेता है और उसका अनुष्ठान पूर्णता की ओर अग्रसर होता है, तब मंत्र सिद्धि के कुछ सात्विक लक्षण प्रकट होने लगते हैं। यह समझना अत्यंत आवश्यक है कि सिद्धि का सच्चा अर्थ चमत्कारिक शक्तियों का प्रदर्शन नहीं, बल्कि चेतना का आंतरिक रूपांतरण है। सांसारिक फलों की प्राप्ति तो इस रूपांतरण का एक स्वाभाविक सह-उत्पाद मात्र है।
मंत्र सिद्धि के सात्विक लक्षण:
मानसिक स्तर पर: मन में एक अपूर्व शांति, स्थिरता और आनंद की अनुभूति होने लगती है। व्यर्थ के संकल्प-विकल्प शांत हो जाते हैं और चित्त सहज ही एकाग्र होने लगता है।
शारीरिक स्तर पर: शरीर में हल्कापन, स्फूर्ति और एक दिव्य ऊर्जा का संचार अनुभव होता है। मुख पर एक विशेष तेज और कांति आ जाती है ।
आध्यात्मिक अनुभव: यह सिद्धि का सबसे प्रामाणिक लक्षण है। साधक को यह अनुभव होता है कि बिना प्रयास के ही मंत्र का जप मन के भीतर स्वतः चल रहा है। इस अवस्था को 'अजपा-जप' कहते हैं । कभी-कभी ध्यान की गहरी अवस्था में आज्ञाचक्र (भ्रूमध्य) पर मंत्र अग्नि के अक्षरों में लिखा हुआ दिखाई देता है । साधक को हर क्षण अपने इष्टदेव की उपस्थिति का अनुभव होने लगता है या स्वप्न में उनके दिव्य दर्शन प्राप्त होते हैं ।
सांसारिक फल: जब चेतना शुद्ध और ईश्वर से संयुक्त हो जाती है, तो साधक की सात्विक और धर्म-अनुकूल इच्छाएं अनायास ही पूरी होने लगती हैं ।
उपसंहार: भगवत्-कृपा में समर्पण
अंततः, मंत्र सिद्धि का यह देवपथ साधक के पुरुषार्थ (नियम, अनुशासन, तप) और भगवत्-कृपा का पवित्र संगम है। साधक का कर्तव्य है कि वह पूर्ण श्रद्धा और निष्ठा के साथ शास्त्रों में वर्णित नियमों का पालन करते हुए अपना कर्म करे, किंतु फल के लिए स्वयं को पूर्ण रूप से गुरु और इष्टदेव के चरणों में समर्पित कर दे।
सिद्धि की प्राप्ति के बाद साधक के मार्ग में सबसे बड़ा विघ्न 'अहंकार' के रूप में आता है। यदि साधक प्राप्त शक्तियों को अपनी मानता है और उनका प्रदर्शन करने लगता है, तो उसका पतन निश्चित है। सिद्धियों का उपयोग केवल आत्म-कल्याण, लोक-कल्याण और धर्म की सेवा के लिए ही किया जाना चाहिए। यही साधना की सच्ची सफलता है।
परमपिता परमेश्वर से यही प्रार्थना है कि वे सभी जिज्ञासुओं और साधकों को इस दिव्य पथ पर चलने की शक्ति, श्रद्धा और धैर्य प्रदान करें, ताकि वे मंत्र-विज्ञान के इस गूढ़ रहस्य को आत्मसात कर अपने जीवन को धन्य बना सकें।
|| ॐ तत् सत् ||