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देवी मंत्रों से रत्न-सिद्धि कैसे करें? शोधन, प्राण-प्रतिष्ठा, ग्रह–देवी संबंध, हीरा/मोती/गोमेद के मंत्र और लाभ—सब कुछ सरल भाषा में पढ़ें।

देवी मंत्रों से रत्न-सिद्धि कैसे करें? शोधन, प्राण-प्रतिष्ठा, ग्रह–देवी संबंध, हीरा/मोती/गोमेद के मंत्र और लाभ—सब कुछ सरल भाषा में पढ़ें।AI द्वारा विशेष रूप से इस लेख के लिए निर्मित एक चित्र।🔒 चित्र का पूर्ण अधिकार pauranik.org के पास सुरक्षित है।

रत्न-सिद्धि: देवी मंत्रों से कैसे जागृत होती है रत्नों की दिव्य चेतना?

सनातन धर्म की प्रत्येक परम्परा और विधान के पीछे एक गहन आध्यात्मिक विज्ञान छिपा है। ज्योतिष शास्त्र में रत्नों का प्रयोग केवल ग्रहों की शांति के लिए नहीं होता, अपितु यह एक गूढ़ तांत्रिक प्रक्रिया है जिसे ‘रत्न सिद्धि’ या ‘रत्ननिवेश’ कहा जाता है। यह जड़ प्रतीत होने वाले पाषाण में दिव्य चेतना के आवाहन का विज्ञान है। इस सम्पूर्ण प्रक्रिया का प्राण हैं ‘देवी मंत्र’। आइये, शास्त्रों के प्रकाश में इस रहस्य को समझें कि किस प्रकार देवी मंत्र एक सामान्य रत्न को सिद्ध और चैतन्य युक्त बना देते हैं।

रत्नों का दिव्य उद्गम: दैत्यराज बलि का आत्म-यज्ञ

रत्नों को धारण करने से पूर्व यह जानना आवश्यक है कि वे पृथ्वी के गर्भ से निकले साधारण खनिज मात्र नहीं हैं। गरुड़ पुराण और श्रीमद्भागवत महापुराण में वर्णित कथा के अनुसार, रत्नों का उद्गम परम भक्त दैत्यराज बलि के महायज्ञ से हुआ है। जब भगवान विष्णु ने वामन अवतार में बलि से तीन पग भूमि मांगी और दो पग में ही सम्पूर्ण ब्रह्मांड नाप लिया, तब तीसरे पग के लिए बलि ने अपना मस्तक अर्पित कर दिया। भगवान के चरण स्पर्श से बलि का भौतिक शरीर पवित्र और देव-तुल्य हो गया।

उसी क्षण, उनका शरीर विभिन्न रत्नों में परिवर्तित होकर सम्पूर्ण भू-मंडल पर बिखर गया।

  • उनके मस्तिष्क से वज्र (हीरा) की उत्पत्ति हुई ।
  • उनके मन से मुक्ता (मोती) का प्रादुर्भाव हुआ।
  • उनकी आँखों से इंद्रनील (नीलम) बना ।
  • उनके हृदय के रक्त से पद्मराग (माणिक्य) का निर्माण हुआ।

यह कथा स्थापित करती है कि प्रत्येक शास्त्रोक्त रत्न अपने आप में एक महान भक्त के सर्वोच्च त्याग और भगवान की कृपा का अंश है। इसी दिव्य उत्पत्ति के कारण उनमें दैवीय ऊर्जा को धारण करने की स्वाभाविक क्षमता होती है।

शब्द ब्रह्म का सिद्धांत और मंत्र की शक्ति

तंत्र शास्त्र के अनुसार, यह सम्पूर्ण सृष्टि एक आदि-नाद या स्पंदन से उत्पन्न हुई है, जिसे ‘शब्द ब्रह्म’ कहा गया है। प्रत्येक देवी-देवता उस परब्रह्म की एक विशिष्ट शक्ति के स्वरूप हैं और उनका मंत्र कोई साधारण शब्द-समूह नहीं, बल्कि स्वयं उनका ध्वनि-स्वरूप है। जब हम किसी देवी का मंत्र जपते हैं, तो हम वास्तव में उनकी चेतना की आवृत्ति का आवाहन करते हैं।

मंत्र, उस देवी की साक्षात् शक्ति है जो जड़ पदार्थ में चेतना का संचार करने में सक्षम है। इसी को ‘मंत्र चैतन्य’ कहते हैं । रत्न सिद्धि की प्रक्रिया इसी वैज्ञानिक और आध्यात्मिक सिद्धांत पर आधारित है। हम एक विशिष्ट देवी मंत्र का उपयोग करके, उस रत्न में सोई हुई दिव्य ऊर्जा को जागृत करते हैं, जो दैत्यराज बलि के यज्ञ के कारण उसमें पहले से ही सूक्ष्म रूप में विद्यमान है।

प्राण-प्रतिष्ठा: रत्न में देवत्व-स्थापन की पवित्र प्रक्रिया

एक रत्न को खान से निकालकर, तराशकर सीधे धारण कर लेना शास्त्र सम्मत नहीं है। उसकी शुद्धि और प्राण-प्रतिष्ठा अनिवार्य है, जिसके बिना वह एक चैतन्य उपकरण के स्थान पर केवल एक सुंदर पत्थर ही रहता है। यह प्रक्रिया दो मुख्य चरणों में होती है:

  1. शोधन (शुद्धिकरण)

    सर्वप्रथम, रत्न को पंचामृत (कच्चा दूध, दही, घी, शहद और शक्कर का मिश्रण) और फिर गंगाजल से स्नान कराया जाता है । यह प्रक्रिया रत्न पर खनन, घिसाई और विभिन्न हाथों से गुजरने के दौरान आई नकारात्मक ऊर्जाओं को समाप्त करने के लिए आवश्यक है। यह केवल भौतिक स्वच्छता नहीं, अपितु आध्यात्मिक मार्जन है।

  2. अभिमंत्रण (प्राण-प्रतिष्ठा)

    शुद्धिकरण के पश्चात् रत्न को एक स्वच्छ आसन पर स्थापित किया जाता है। फिर धारणकर्ता अपने गोत्र, नाम और मनोकामना का संकल्प लेकर उस रत्न से संबंधित ग्रह की अधिष्ठात्री देवी के मंत्र का 108 बार जाप करता है। प्रत्येक मंत्रोच्चार के साथ, देवी की प्राण-शक्ति रत्न में स्थापित होती जाती है। यह प्रक्रिया उस रत्न को एक जड़ वस्तु से ‘जीवित’ या ‘चैतन्य’ स्वरूप में परिवर्तित कर देती है । अब वह रत्न केवल ग्रह की रश्मियों को आकर्षित नहीं करता, बल्कि स्वयं अधिष्ठात्री देवी की कृपा का एक शक्तिशाली माध्यम बन जाता है।

रत्न, ग्रह और अधिष्ठात्री देवी का संबंध

प्रत्येक ग्रह की एक अधिष्ठात्री देवी हैं, जो उस ग्रह की ऊर्जा को नियंत्रित करती हैं। रत्न सिद्धि के लिए उसी देवी के मंत्र का प्रयोग सर्वाधिक फलदायी होता है।

हीरा (शुक्र ग्रह)

शुक्र ग्रह सौंदर्य, ऐश्वर्य और प्रेम के कारक हैं। इनकी अधिष्ठात्री देवी माँ महालक्ष्मी हैं। अतः हीरे को माँ लक्ष्मी के बीज मंत्र “ ॐश्रींह्रींश्रींमहालक्ष्म्यैनमः ” से सिद्ध करने पर यह भौतिक समृद्धि के साथ-साथ जीवन में दिव्यता और आनंद की वृद्धि करता है।

मोती (चंद्र ग्रह)

चंद्रमा मन, भावना और मातृत्व का प्रतीक है। यद्यपि इनके देव भगवान शिव हैं, किन्तु इनकी सौम्य, शीतल और पोषण प्रदान करने वाली शक्ति का मातृ-स्वरूप भगवती गौरी (पार्वती) हैं। मोती को माँ गौरी के मंत्र से सिद्ध करने पर यह मानसिक शांति, भावनात्मक संतुलन और विचारों में सात्विकता प्रदान करता है।

गोमेद (राहु ग्रह)

राहु एक छाया ग्रह है, जो आकस्मिकता, भौतिक इच्छाओं और बाधाओं का प्रतिनिधित्व करता है। इस उग्र ऊर्जा को केवल आदिशक्ति ही नियंत्रित कर सकती हैं। अतः राहु की अधिष्ठात्री देवी माँ दुर्गा हैं । गोमेद को माँ दुर्गा के नवार्ण मंत्र: ॐ ऐंह्रींक्लींचामुण्डायैविच्चे से सिद्ध करने पर यह हर प्रकार की नकारात्मक ऊर्जा, गुप्त शत्रुओं से रक्षा करता है और जीवन को स्थिरता प्रदान करता है।

निष्कर्ष: श्रद्धा का विज्ञान

रत्न सिद्धि कोई अंधविश्वास या केवल परम्परा नहीं, बल्कि यह सनातन धर्म का एक गूढ़ विज्ञान है। यह तीन स्तंभों पर आधारित है:

  • दिव्य पदार्थ: दैत्यराज बलि के यज्ञ से उत्पन्न पवित्र रत्न।
  • दिव्य ध्वनि: साक्षात् देवी-स्वरूपी मंत्र।
  • दिव्य भाव: धारणकर्ता की पूर्ण श्रद्धा और शुद्ध संकल्प।

जब इन तीनों का संगम होता है, तब एक पाषाण केवल पाषाण नहीं रहता। वह एक सिद्ध कवच, एक दैवीय यंत्र और अपने इष्ट देवी का निरंतर आशीर्वाद प्रदान करने वाला एक जीवंत माध्यम बन जाता है। यही रत्न सिद्धि का वास्तविक रहस्य और देवी मंत्रों का अतुलनीय महत्व है।


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