जानिए: तंत्र की ‘शव-साधना’ क्या है? दर्शन, उद्देश्य, गुरु-तत्त्व और आज के जीवन के प्रेरक सूत्र—पढ़िए विस्तार से

शव से शिव तक की यात्रा: तंत्र की रहस्यमयी शव-साधना का दार्शनिक सत्य
सनातन धर्म ज्ञान का एक अथाह महासागर है, जिसमें अनेक गुप्त एवं गहन साधना-पद्धतियाँ वर्णित हैं। इन्हीं में से एक है तंत्र-मार्ग की सर्वोच्च साधना, जिसे ‘शव-साधना’ या ‘अघोर-साधना’ के नाम से जाना जाता है। सामान्य जनमानस के लिए यह विषय भय और जिज्ञासा का स्रोत हो सकता है, परंतु शास्त्रों की दृष्टि से यह एक अत्यंत गूढ़ आध्यात्मिक प्रक्रिया है, जो साधक को नश्वरता के भय से मुक्त कर अमरत्व के बोध तक ले जाती है। यह साधना केवल उन साधकों के लिए है जो आध्यात्मिक रूप से एक विशेष अवस्था को प्राप्त कर चुके हैं और जिनमें लौकिक मान्यताओं से परे जाने का अदम्य साहस है।
आइए, शास्त्रों के प्रकाश में इस रहस्यमयी साधना के दार्शनिक आधार, इसकी विधि और आज के जीवन के लिए इसके प्रेरणा-सूत्रों को समझने का प्रयास करें।
अघोर साधना का दार्शनिक आधार
तान्त्रिक विश्व-दृष्टि: द्वैत से परे
तंत्र शास्त्र की दृष्टि में यह सम्पूर्ण ब्रह्मांड स्वयं शिव और शक्ति का ही साकार रूप है । जब सब कुछ दिव्य चेतना से ही बना है, तो फिर कोई भी वस्तु अपवित्र या अशुद्ध कैसे हो सकती है? पवित्रता और अपवित्रता का भेद केवल सीमित मानवीय मन की उपज है, जो अज्ञान (अविद्या) का एक रूप है। तंत्र का साधक इसी द्वैत-बुद्धि से ऊपर उठने का प्रयास करता है।
इसी आधार पर तंत्र शास्त्र साधकों को तीन भावों या स्वभावों में वर्गीकृत करता है :
पशु-भाव: यह वह अवस्था है जिसमें व्यक्ति सामाजिक नियमों, भय, लज्जा और घृणा जैसे बंधनों (पाश) में जकड़ा रहता है। वह पारंपरिक शुद्ध-अशुद्ध के भेद को मानता है और उसकी साधना भी इन्हीं सीमाओं में बंधी रहती है ।
वीर-भाव: ‘वीर’ वह साधक है जिसमें अपने भीतर के अंधकार, भय, कामनाओं और घृणा का सीधे सामना करने का साहस होता है। वह समाज द्वारा वर्जित और भयभीत करने वाली परिस्थितियों में भी समभाव में स्थित रहकर, द्वैत को जीतने के लिए कठोर साधनाएं करता है । शव-साधना वीर-भाव के साधक की सर्वोच्च परीक्षा और साधना है।
दिव्य-भाव: यह वह अवस्था है जब साधक समस्त संघर्षों से पार होकर सहज ही दिव्यता, प्रेम और करुणा में स्थित हो जाता है ।
शव-साधना किसी नौसिखिये के लिए भय पर विजय पाने का उपाय नहीं है, अपितु यह उस वीर साधक के लिए है जो ज्ञान के स्तर पर पहले ही शुद्ध-अशुद्ध के भेद से ऊपर उठ चुका है। यह साधना उस साधक के अद्वैत-दर्शन की अंतिम और सबसे कठिन परीक्षा है, जहाँ उसे मृत्यु के साक्षात प्रतीक, शव में भी अपने आराध्य शिव का ही दर्शन करना होता है।
पवित्र स्थान एवं समय: श्मशान और अमावस्या
इस साधना के लिए स्थान और समय का चयन भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।
श्मशान: श्मशान भूमि केवल शवों के दाह का स्थान नहीं, अपितु यह भगवान शिव का वास-स्थान है । यह नश्वरता का सबसे बड़ा प्रतीक है, जहाँ शरीर और उससे जुड़े अहंकार का सत्य प्रकट होता है। तांत्रिक साधक के लिए यह एक सिद्ध-पीठ है, जहाँ भौतिक और सूक्ष्म जगत के बीच का पर्दा अत्यंत क्षीण होता है। यह वह स्थान है जहाँ सभी रूप और पहचान भस्म हो जाते हैं, और केवल चैतन्य शेष रहता है, जो मोक्ष का द्वार है ।
अमावस्या: अमावस्या की रात्रि ब्रह्मांडीय विलय और शून्य की ऊर्जा से परिपूर्ण होती है। चन्द्रमा, जो मन का प्रतीक है, उसकी अनुपस्थिति एक आध्यात्मिक रिक्तता का निर्माण करती है, जो मुक्ति (मोक्ष) और अहंकार के विलय के लिए की जाने वाली साधनाओं के लिए परम शक्तिशाली मानी गई है ।
इस प्रकार, स्थान (श्मशान), समय (अमावस्या), आलंबन (शव) और उद्देश्य (अहंकार-नाश) का यह अद्भुत संयोग एक ऐसा शक्तिशाली आध्यात्मिक ऊर्जा-चक्र बनाता है, जो साधक को उन ऊँचाइयों तक ले जा सकता है, जिन्हें पाने में अन्यथा कई जन्म लग सकते हैं।
शव-साधना: विधि एवं उद्देश्य
यह साधना अत्यंत गोपनीय है और इसके मंत्र तथा पूर्ण विधि केवल योग्य गुरु द्वारा ही प्रदान की जाती है । शास्त्रों जैसे तंत्रसार और कौलावलीनिर्णय में इसके कुछ संकेत मिलते हैं । विधि में शव का शास्त्रोक्त चयन, स्थान का शुद्धिकरण, मंत्रों द्वारा रक्षा-चक्र का निर्माण, और फिर शव को भैरव का स्वरूप मानकर उसकी पूजा सम्मिलित है । इसके पश्चात साधक शव पर बैठकर या उसके समीप बैठकर अपने गुरु द्वारा प्रदत्त मंत्र का जाप और गहन ध्यान करता है। इस दौरान अनेक भयावह अनुभव हो सकते हैं, जो साधक के धैर्य और निर्भयता की परीक्षा लेते हैं। भय का एक क्षण भी साधक के लिए प्राणघातक या उसे विक्षिप्त करने वाला हो सकता है ।
साधना का परम लक्ष्य मृत्यु के भय का समूल नाश करना है। जब साधक मृत्यु के सबसे घनीभूत रूप को सीधे अपनी चेतना का विषय बनाता है, तो वह अनुभव करता है कि मृत्यु केवल शरीर की है, आत्मा की नहीं। वह अपने भीतर स्थित उस अविनाशी चैतन्य-तत्त्व का साक्षात्कार करता है, जो जन्म और मृत्यु से परे है । इस साधना का यौगिक उद्देश्य कुंडलिनी शक्ति को जाग्रत कर सहस्रार में स्थित परमशिव से उसका विलय कराना है, जो आत्म-साक्षात्कार और मोक्ष की अवस्था है ।
तंत्र-मार्ग में गुरु की सर्वोच्चता
तंत्र-मार्ग में कोई भी साधना, विशेषकर शव-साधना जैसी कोटि की साधना, गुरु के बिना असंभव और आत्मघाती है। यहाँ गुरु केवल एक शिक्षक नहीं, बल्कि साक्षात शिव-स्वरूप हैं।
गुरु-तत्त्व
गुरु कोई व्यक्ति मात्र नहीं, अपितु एक सार्वभौमिक तत्त्व है, जो अज्ञान रूपी अंधकार (‘गु’) को ज्ञान रूपी प्रकाश (‘रु’) से नष्ट करता है ।
स्कन्द पुराण के अंतर्गत ‘गुरु गीता’ स्पष्ट कहती है:
गुरुर्ब्रह्मागुरुर्विष्णुःगुरुर्देवोमहेश्वरः।
गुरुःसाक्षात्परब्रह्मतस्मैश्रीगुरवेनमः॥
अर्थात्, गुरु ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं। गुरु ही साक्षात् परब्रह्म हैं। ऐसे श्रीगुरु को मेरा नमन है । एक सद्गुरु में शास्त्रों का पूर्ण ज्ञान (श्रोत्रिय) और ब्रह्म का अपरोक्ष अनुभव (ब्रह्मनिष्ठ), दोनों गुण होते हैं ।
गुरु-कृपा की अनिवार्यता
‘गुरु गीता’ का यह सूत्र सम्पूर्ण साधना का सार है:
ध्यानमूलंगुरोर्मूर्तिःपूजामूलंगुरोःपदम्।
मन्त्रमूलंगुरोर्वाक्यंमोक्षमूलंगुरुकृपा॥
अर्थात्, ध्यान का मूल गुरु की मूर्ति है, पूजा का मूल गुरु के चरण हैं, मंत्र का मूल गुरु का वाक्य है, और मोक्ष का मूल केवल गुरु की कृपा है । साधक के अपने प्रयास उसे एक सीमा तक ही ले जा सकते हैं, परंतु मोक्ष केवल गुरु-कृपा से ही संभव है। यह कृपा ‘शक्तिपात’ के रूप में शिष्य में संचारित होती है, जो उसकी सोई हुई कुंडलिनी को जाग्रत करती है और साधना के विघ्नों से उसकी रक्षा करती है । गुरु के बिना मंत्र केवल शब्द हैं और साधना प्राणहीन क्रिया।