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वैदिक बनाम तांत्रिक मंत्र साधना: पढ़िए-जानिए क्या फर्क है, कौन सा मार्ग चुनें और क्यों (निगम-आगम का स्पष्ट विश्लेषण)

वैदिक बनाम तांत्रिक मंत्र साधना: पढ़िए-जानिए क्या फर्क है, कौन सा मार्ग चुनें और क्यों (निगम-आगम का स्पष्ट विश्लेषण)AI द्वारा विशेष रूप से इस लेख के लिए निर्मित एक चित्र।🔒 चित्र का पूर्ण अधिकार pauranik.org के पास सुरक्षित है।

वैदिक एवं तांत्रिक मंत्र साधना: सनातन धर्म की दो दिव्य धाराएँ

प्रस्तावना: निगम और आगम का दिव्य संगम

वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभ।
निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा॥

सरस्वति नमस्तुभ्यं वरदे कामरूपिणि।
विद्यारम्भं करिष्यामि सिद्धिर्भवतु मे सदा॥

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥

सनातन धर्म एक विशाल महासागर के सदृश है, जिसमें ज्ञान और साधना की अनगिनत पवित्र धाराएँ आकर मिलती हैं। इन धाराओं में दो प्रमुख प्रणालियाँ हैं, जो साधकों को परम सत्य की ओर ले जाती हैं - वैदिक मार्ग और तांत्रिक मार्ग। सामान्य दृष्टि से ये दोनों भिन्न प्रतीत हो सकते हैं, परंतु शास्त्रों के गहन अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि ये परस्पर विरोधी नहीं, अपितु एक दूसरे के पूरक हैं। ये सनातन धर्म के ही दो दिव्य आयाम हैं, जिन्हें शास्त्रकारों ने 'निगम' और 'आगम' की संज्ञा दी है।

'निगम' से तात्पर्य वेदों से है। यह वह शाश्वत ज्ञान है जो परम्परा से प्राप्त हुआ है, जो सृष्टि के आरम्भ से ही विद्यमान है और जिसे ऋषियों ने अपने तपोबल से श्रवण किया, इसीलिए वेद 'श्रुति' कहलाते हैं । निगम परम सत्य, धर्म के मूल सिद्धांतों और ब्रह्मांड के नियमों का स्वरूप बतलाता है । वहीं, 'आगम' तंत्र शास्त्रों को कहा गया है। आगम का अर्थ है 'जो हम तक आया है'। यह वह व्यावहारिक विज्ञान है जो भगवान शिव की करुणा से प्रकट हुआ, ताकि निगम द्वारा प्रतिपादित सत्य का साक्षात्कार किया जा सके। यदि निगम 'ज्ञान' का स्रोत है, तो आगम उस ज्ञान को अनुभव में लाने का 'विज्ञान' या 'उपाय' है।

इन दोनों के मध्य का संबंध सनातन धर्म की जीवंतता और गतिशीलता को दर्शाता है। वेद 'निगम' के रूप में एक शाश्वत, कालातीत नींव प्रदान करते हैं, जबकि 'आगम' शास्त्र कलियुग के जीवों की घटती हुई आध्यात्मिक क्षमता और परिवर्तित परिस्थितियों के प्रति परमात्मा की करुणा का प्रतीक हैं। शास्त्रों में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि आगम की पद्धतियाँ विशेष रूप से कलियुग के लिए उपयुक्त हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि धर्म स्थिर नहीं, बल्कि एक सतत प्रवाहमान दिव्य चेतना है, जो समय और पात्र के अनुसार स्वयं को अभिव्यक्त करती है। अतः, वैदिक और तांत्रिक साधना को एक दूसरे के विरुद्ध नहीं, बल्कि एक ही परम लक्ष्य की ओर ले जाने वाले दो सोपानों के रूप में समझना चाहिए।

उद्गम एवं प्रामाणिकता: अपौरुषेय श्रुति और शिव-पार्वती संवाद

किसी भी साधना पद्धति की प्रामाणिकता उसके उद्गम स्रोत पर निर्भर करती है। इस दृष्टि से वैदिक और तांत्रिक, दोनों ही मार्गों का उद्गम दिव्य और अलौकिक है, परंतु उनकी प्रकृति में एक मौलिक भिन्नता है जो उनके संपूर्ण दर्शन को परिभाषित करती है।

वैदिक मार्ग - परब्रह्म का निःश्वास

वैदिक ज्ञान की सबसे बड़ी विशेषता उसका 'अपौरुषेय' होना है। 'अपौरुषेय' का अर्थ है कि वेदों की रचना किसी पुरुष, चाहे वह मनुष्य हो या देवता, ने नहीं की है। वेद नित्य हैं, शाश्वत हैं। श्रुतियाँ कहती हैं कि ऋग्वेद आदि चारों वेद 'उस महाभूत के निःश्वास' हैं। जैसे श्वास-प्रश्वास की क्रिया स्वतः होती है, उसमें किसी बुद्धि या प्रयत्न की आवश्यकता नहीं होती, उसी प्रकार वेद उस परब्रह्म से स्वतः आविर्भूत हुए हैं।

प्राचीन महर्षियों ने अपनी गहनतम समाधि की अवस्था में इन शाश्वत ज्ञान-राशियों का साक्षात्कार किया या उन्हें 'श्रवण' किया; वे इनके रचयिता नहीं, अपितु 'द्रष्टा' हैं। यही कारण है कि वेदों के साथ जिन ऋषियों या शाखाओं के नाम (जैसे तैत्तिरीय, काठक) जुड़े हैं, वे उनके प्रवचनकर्ता या उस ज्ञान परम्परा के वाहक हैं, न कि उसके निर्माता। वेदों की यह अपौरुषेय प्रकृति उन्हें सनातन धर्म का सर्वोच्च और निर्विवाद प्रमाण-ग्रंथ बनाती है।

तांत्रिक मार्ग - करुणा का संवाद

इसके विपरीत, आगम या तंत्र शास्त्रों का उद्गम भगवान शिव और माता पार्वती के मध्य हुए एक दिव्य संवाद के रूप में हुआ है । कैलाश के रमणीय शिखर पर, जब माता पार्वती ने लोक कल्याण की भावना से प्रेरित होकर भगवान महादेव से साधना के गूढ़ रहस्य पूछे, तब देवाधिदेव ने उनके प्रश्नों के उत्तर में तंत्र के गहन ज्ञान को प्रकट किया। यह संवाद केवल पति-पत्नी का वार्तालाप नहीं, बल्कि चेतना (शिव) और शक्ति (पार्वती) का तादात्म्य है, आदिगुरु का अपनी आदि-शिष्या को दिया गया उपदेश है।

दार्शनिक आधार: ज्योतिर्मय पुरुष और शक्तिमयी देवी

वैदिक और तांत्रिक साधना पद्धतियों के मूल में उनके दार्शनिक दृष्टिकोण का अंतर है। दोनों ही एक ही अद्वैत सत्य को स्वीकार करते हैं, परंतु उस तक पहुँचने के लिए उनके बल देने के केंद्र भिन्न हैं।

वैदिक दर्शन - ज्योतिर्मय पुरुष

वैदिक दर्शन का केंद्र 'ज्योतिर्मय पुरुष' है - अर्थात 'प्रकाश से बना हुआ पुरुष' या 'प्रकाश-स्वरूप सत्ता'। यह परम शिव-तत्व का ही द्योतक है, जिसे वेदों में ब्रह्म, पुरुष और आत्मा जैसे अमूर्त सिद्धांतों के माध्यम से समझाया गया है। वैदिक देवताओं का स्वरूप मुख्यतः ब्रह्मांडीय और प्राकृतिक शक्तियों का मानवीकरण है ।

इंद्र: वे देवों के राजा, वर्षा, वज्र और युद्ध के देवता हैं। ऋग्वेद में सबसे अधिक सूक्त इंद्र की स्तुति में हैं। वे वृत्रासुर जैसे राक्षसों का वध कर ब्रह्मांडीय व्यवस्था (ऋत) को स्थापित करते हैं ।

अग्नि: वे यज्ञ के पुरोहित और देवों के मुख हैं। अग्नि ही वह माध्यम हैं जो यज्ञ में दी गई आहुतियों को देवताओं तक पहुँचाते हैं, इस प्रकार वे मनुष्य और देवलोक के बीच दूत का कार्य करते हैं ।

वरुण: वे ऋत, अर्थात ब्रह्मांडीय और नैतिक व्यवस्था के संरक्षक हैं। वे आकाश और जल के देवता हैं तथा सत्य और न्याय के शासक माने जाते हैं ।

सूर्य: वे जीवन और प्रकाश के स्रोत हैं।

यद्यपि वेदों में उषा, अदिति, सरस्वती जैसी देवियों की स्तुति भी की गई है, तथापि समग्र दृष्टिकोण पुरुष-प्रधान या प्रकाश-केंद्रित है, जो चेतना के स्थिर और निर्गुण पक्ष पर अधिक बल देता है।

तांत्रिक दर्शन - शक्तिमयी देवी

तांत्रिक दर्शन का केंद्र 'शक्तिमयी देवी' है - अर्थात 'ऊर्जा से बनी हुई देवी' या 'शक्ति-स्वरूपा सत्ता'। तंत्र यह मानता है कि परब्रह्म शिव (चेतना) और शक्ति (ऊर्जा) के अविभाज्य मिलन का स्वरूप है। शिव 'प्रकाश' हैं तो शक्ति उनकी 'विमर्श' (अभिव्यक्ति) है। प्रकाश और ऊर्जा उसी प्रकार अभिन्न हैं, जैसे अग्नि और उसकी दाहकता । इस ब्रह्मांड में जो कुछ भी है, वह सब शक्ति का ही खेल है।

इसलिए, तंत्र में उपासना का मुख्य केंद्र बिंदु आदिशक्ति, जगदम्बा हैं। उनकी उपासना विभिन्न स्वरूपों में की जाती है, जिनमें 'दशमहाविद्या' प्रमुख हैं। काली, तारा, षोडशी (त्रिपुर सुंदरी), भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी और कमला - ये दस महाविद्याएँ ब्रह्मांडीय चेतना के दस विभिन्न पहलुओं का प्रतिनिधित्व करती हैं । वैदिक देवताओं के विपरीत, तांत्रिक देवियों का स्वरूप अत्यंत स्पष्ट, मानवीय और प्रतीकात्मक होता है, जिनके प्रत्येक अंग, आयुध और मुद्रा का गहरा आध्यात्मिक अर्थ होता है।

यह दार्शनिक भिन्नता साधना के दृष्टिकोण में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन को दर्शाती है - स्थूल ब्रह्मांड से सूक्ष्म शरीर की ओर एक यात्रा। वैदिक साधना का मुख्य उद्देश्य यज्ञों के माध्यम से बाह्य ब्रह्मांडीय शक्तियों (देवताओं) को तृप्त कर ब्रह्मांडीय व्यवस्था के साथ स्वयं को संरेखित करना है। यह एक बहिर्मुखी प्रक्रिया है। इसके विपरीत, तंत्र दर्शन यह सिखाता है कि जो ब्रह्मांड बाहर है, वही इस पिंड (शरीर) के भीतर भी है ('यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे')। वही ब्रह्मांडीय ऊर्जा, जिसे शक्ति कहते हैं, प्रत्येक जीव के शरीर में मूलाधार चक्र में 'कुंडलिनी' के रूप में सुप्त अवस्था में विद्यमान है। तांत्रिक साधना का लक्ष्य इसी आंतरिक शक्ति को जागृत कर अपने भीतर ही शिव-शक्ति का मिलन कराना है। इस प्रकार, वेद जहाँ ब्रह्मांडीय मंच और उसके पात्रों (देवताओं) का वर्णन करते हैं, वहीं तंत्र उस साधक को स्वयं के भीतर उस संपूर्ण मंच और सभी पात्रों का अनुभव करने की क्रियात्मक विधि प्रदान करता है।

मंत्रों का रहस्य: वैदिक छंद और तांत्रिक बीज

मंत्र साधना का प्राण है। वैदिक और तांत्रिक, दोनों ही परम्पराओं में मंत्रों का स्थान सर्वोपरि है, किंतु उनकी संरचना, प्रकृति और प्रयोग में गहरा अंतर है, जो उनके भिन्न दार्शनिक आधारों से ही उपजा है।

वैदिक मंत्रों का स्वरूप

वैदिक मंत्र अत्यंत व्यवस्थित और नियमबद्ध रचनाएँ हैं। उनकी शक्ति और प्रभावशीलता तीन तत्वों के पूर्ण सामंजस्य पर निर्भर करती है: ऋषि (जिसने मंत्र का दर्शन किया), छंद (काव्य का सटीक माप या मीटर), और देवता (जिस शक्ति का आवाहन किया जा रहा है)।

इनमें छंद और स्वर का महत्व सर्वाधिक है। प्रत्येक वैदिक मंत्र एक विशिष्ट छंद में निबद्ध होता है, जैसे गायत्री (24 अक्षर), अनुष्टुप् (32 अक्षर), त्रिष्टुप् (44 अक्षर), जगती (48 अक्षर) आदि । अक्षरों की संख्या और पादों की व्यवस्था निश्चित होती है। इसके साथ ही, प्रत्येक अक्षर का उच्चारण एक विशिष्ट स्वर-प्रक्रिया (उदात्त - ऊँचा स्वर, अनुदात्त - नीचा स्वर, और स्वरित - सम स्वर) के अनुसार करना अनिवार्य है। छंद या स्वर में थोड़ी सी भी त्रुटि मंत्र को निष्प्रभावी या यहाँ तक कि विपरीत फलदायी बना सकती है। ये मंत्र मुख्यतः स्तुति, प्रार्थना और आवाहन के रूप में होते हैं, जिनका उद्देश्य देवताओं को प्रसन्न करना और साधक को ब्रह्मांडीय लय (ऋत) के साथ एकाकार करना है। इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण गायत्री मंत्र है, जो ज्ञान और आध्यात्मिक उन्नति के लिए एक प्रार्थना है।

तांत्रिक मंत्रों का स्वरूप

तांत्रिक मंत्रों का हृदय 'बीज मंत्र' होते हैं। ये एकाक्षरी मंत्र (जैसे ह्रीं, क्लीं, क्रीं, ऐं, श्रीं) तंत्र साधना की कुंजी हैं। बीज मंत्र किसी देवता से की गई प्रार्थना नहीं है, अपितु यह स्वयं देवता का शब्द-स्वरूप या नाद-स्वरूप है। बीज मंत्र उस देवता की संपूर्ण शक्ति और चेतना को अपने भीतर एक बीज के रूप में समाहित रखता है। उदाहरण के लिए, 'क्रीं' बीज मंत्र केवल महाकाली का प्रतीक नहीं है, अपितु यह स्वयं महाकाली का ध्वन्यात्मक विग्रह है।

इन बीजों को आदि-नाद या ब्रह्मांड की उत्पत्ति का मूल स्रोत माना जाता है, जिनमें असीम, घनीभूत शक्ति निहित होती है। वैदिक मंत्रों के विपरीत, जहाँ प्रभाव धीरे-धीरे और शुद्धिकारक होता है, वहीं बीज मंत्रों का प्रभाव अत्यंत तीव्र, शक्तिशाली और परिवर्तनकारी होता है। इनका प्रयोग साधक के भीतर स्थित चक्रों और चेतना में सोई हुई दिव्य ऊर्जा को सीधे जागृत करने के लिए किया जाता है। तांत्रिक मंत्रों की शक्ति तलवार की धार की तरह होती है; यदि गुरु के मार्गदर्शन के बिना और अशुद्ध चित्त से इसका प्रयोग किया जाए, तो यह साधक के लिए विनाशकारी भी हो सकता है।

सारणी 1: वैदिक और तांत्रिक मंत्रों का तुलनात्मक विश्लेषण
विशेषता वैदिक मंत्र तांत्रिक मंत्र
स्रोत निगम (वेद) आगम (तंत्र)
संरचना कठोर छंद और स्वर के नियमों से बद्ध बीज मंत्र पर केंद्रित, प्रायः देवता के नाम और 'नमः' के साथ संयुक्त
मूल तत्व ब्रह्मांडीय शक्तियों (देवताओं) के प्रति एक व्यवस्थित प्रार्थना या आवाहन देवता का साक्षात् नाद-स्वरूप, जिसमें उसकी संपूर्ण शक्ति निहित हो
उदाहरण गायत्री मंत्र: ॐ भूर्भुवः स्वः... महाकाली मंत्र: ॐ क्रीं कालिकायै नमः
केंद्र-बिंदु बाह्य ब्रह्मांडीय नियम (ऋत) से सामंजस्य और देवताओं को प्रसन्न करना साधक के भीतर देवता की विशिष्ट दिव्य ऊर्जा को सीधे सक्रिय करना
प्रभाव क्रमिक, शुद्धिकारक और सामंजस्यपूर्ण प्रभाव तीव्र, शक्तिशाली और परिवर्तनकारी; "तलवार की धार" के समान हो सकता है

साधना पद्धति: यज्ञ और अंतर्याग

साधना की प्रक्रिया में भी वैदिक और तांत्रिक मार्गों में स्पष्ट भिन्नता दिखाई देती है। एक मार्ग बहिर्मुखी अनुष्ठान पर बल देता है, तो दूसरा अंतर्मुखी क्रियाओं पर।

वैदिक साधना - यज्ञ

वैदिक साधना का केंद्र-बिंदु 'यज्ञ' है। यज्ञ, जिसे हवन या अग्निहोत्र भी कहते हैं, एक अग्नि-केंद्रित अनुष्ठान है। यह मुख्य रूप से एक बाह्य-याग है, जिसमें पवित्र अग्नि में विभिन्न द्रव्यों (जैसे घृत, समिधा, अन्न) की आहुति दी जाती है । यज्ञ के उद्देश्य बहुआयामी होते हैं: देवताओं का पोषण करना जिससे वे सृष्टि का संतुलन बनाए रखें, प्राकृतिक आपदाओं से रक्षा और अच्छी वर्षा-फसल के लिए प्रार्थना करना, तथा पुत्र, धन, स्वास्थ्य जैसे सांसारिक अभ्युदय और स्वर्गलोक की प्राप्ति करना । जब यही यज्ञ निष्काम भाव से, केवल कर्तव्य समझकर लोक कल्याण के लिए किया जाता है, तो यह चित्त शुद्धि का माध्यम बनकर मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है।

वैदिक यज्ञ प्रायः एक सामूहिक और सामाजिक अनुष्ठान होता है। इसे संपन्न कराने के लिए एक 'यजमान' (अनुष्ठान का आयोजक) और अनेक प्रशिक्षित पुरोहितों (जैसे होता, अध्वर्यु, उद्गाता) की आवश्यकता होती है। इसमें शुद्धि, मंत्रों के सटीक उच्चारण और क्रियाओं के क्रम का अत्यंत कठोरता से पालन किया जाता है।

तांत्रिक साधना - अंतर्याग

तांत्रिक साधना 'अंतर्याग है - अर्थात आंतरिक यज्ञ। यह एक अत्यंत व्यक्तिगत और गोपनीय साधना है जिसे केवल योग्य गुरु से 'दीक्षा' प्राप्त करने के उपरांत ही किया जा सकता है। गुरु दीक्षा के माध्यम से शिष्य में शक्ति का संचार करते हैं और उसे साधना का अधिकार प्रदान करते हैं। तांत्रिक साधना में बाह्य अग्नि और स्थूल द्रव्यों के स्थान पर सूक्ष्म और आंतरिक उपकरणों का प्रयोग होता है:

यंत्र: यह देवता का ज्यामितीय स्वरूप है। यंत्र केवल एक चित्र नहीं, बल्कि देवता का शरीर या उनका निवास स्थान माना जाता है। मंत्र जाप और ध्यान यंत्र पर ही केंद्रित किया जाता है, क्योंकि यंत्र उस दिव्य ऊर्जा को धारण करता है।

मुद्रा: ये विशिष्ट हस्त-विन्यास या शारीरिक भंगिमाएँ होती हैं। मुद्राओं के माध्यम से साधक अपने शरीर में प्राण-ऊर्जा के प्रवाह को नियंत्रित और निर्देशित करता है, तथा स्वयं को उस देवता की चेतना के साथ एकाकार कर लेता है।

न्यास: यह तांत्रिक साधना का एक अत्यंत महत्वपूर्ण अंग है। 'न्यास' का अर्थ है 'स्थापित करना'। इस क्रिया में साधक मंत्रों के द्वारा अपने शरीर के विभिन्न अंगों पर देवता के विभिन्न स्वरूपों, शक्तियों या मातृका वर्णों को स्थापित करता है। इस प्रक्रिया से साधक का स्थूल शरीर धीरे-धीरे दिव्य शरीर में रूपांतरित हो जाता है। इसका मूल सिद्धांत है - 'देहो देवालयः प्रोक्तो' (शरीर ही देव का मंदिर है) और 'देवो भूत्वा देवं यजेत्' (देवता बनकर ही देवता की पूजा करनी चाहिए)।

वास्तव में, तांत्रिक साधना वैदिक यज्ञ का निषेध नहीं, बल्कि उसका आंतरीकरण है। शास्त्रों में कहा गया है, "तांत्रिक योग ही आंतरीकृत वैदिक यज्ञ है, जिसमें कुंडलिनी रूपी आंतरिक अग्नि की पूजा की जाती है"। इस दृष्टिकोण से, वैदिक यज्ञ की प्रत्येक बाह्य क्रिया का तांत्रिक साधना में एक आंतरिक प्रतिरूप है:

बाह्य यज्ञ-वेदी साधक का भौतिक शरीर बन जाती है।

बाह्य अग्नि मूलाधार में स्थित आंतरिक कुंडलिनी-अग्नि बन जाती है।

घृत और अन्न जैसी बाह्य आहुतियाँ साधक के श्वास, मन, अहंकार और वृत्तियाँ बन जाती हैं, जिन्हें वह आंतरिक अग्नि में समर्पित करता है।

पुरोहितों द्वारा प्रयुक्त यज्ञ के उपकरण साधक के यंत्र, मुद्रा और न्यास बन जाते हैं, जिनके द्वारा वह अपनी आंतरिक ऊर्जा को नियंत्रित करता है।

इस प्रकार, तंत्र ने वैदिक यज्ञ की विराट और जटिल प्रक्रिया को एक ऐसी सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक तकनीक में रूपांतरित कर दिया, जिसे एक साधक कहीं भी, कभी भी, अपने ही शरीर-रूपी मंदिर में संपन्न कर सकता है।

लक्ष्य और अधिकार: मोक्ष, भोग, और साधक की पात्रता

प्रत्येक साधना मार्ग का एक परम लक्ष्य होता है और उस पर चलने के लिए साधक में कुछ योग्यताओं की अपेक्षा की जाती है। इस विषय में वैदिक और तांत्रिक दृष्टिकोणों में महत्वपूर्ण अंतर है।

परम लक्ष्य

वैदिक मार्ग: वैदिक जीवन-दृष्टि का लक्ष्य चार 'पुरुषार्थों' की क्रमिक सिद्धि है - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इसमें धर्मानुसार जीवन जीते हुए, सांसारिक उत्तरदायित्वों का निर्वहन करते हुए, अर्थ और काम का उपभोग कर अंततः मोक्ष की प्राप्ति का लक्ष्य रखा जाता है। यह एक क्रमिक, व्यवस्थित और संतुलन पर आधारित मार्ग है, जिसमें शांति और आध्यात्मिक उन्नति पर बल दिया जाता है।

तांत्रिक मार्ग: तंत्र की यह एक अनूठी विशेषता है कि यह 'भोग' (सांसारिक और आध्यात्मिक आनंद) और 'मोक्ष' (मुक्ति) दोनों को एक साथ प्रदान करने का मार्ग प्रशस्त करता है। तंत्र सांसारिक ऊर्जाओं और इच्छाओं के दमन का उपदेश नहीं देता, बल्कि उनके रूपांतरण की विधि सिखाता है। जागृत कुंडलिनी शक्ति साधक को अष्ट सिद्धियाँ और विभिन्न प्रकार की शक्तियाँ (भोग) प्रदान करती है, और अंततः सहस्रार में शिव से मिलकर उसे परम मुक्ति (मोक्ष) भी प्रदान करती है।

पात्रता - अधिकार का सिद्धांत

'अधिकार' का सिद्धांत यह निर्धारित करता है कि कौन सा साधक किस साधना के लिए योग्य है।

वैदिक अधिकार: परम्परागत रूप से, श्रौत यज्ञ जैसे जटिल वैदिक अनुष्ठानों को करने का अधिकार वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) और लिंग पर आधारित था । प्रत्येक व्यक्ति अपने वर्ण-धर्म के अनुसार ही कर्म करने का अधिकारी था। यह एक अत्यंत व्यवस्थित सामाजिक-आध्यात्मिक संरचना थी, जिसके लिए विशिष्ट योग्यता और पवित्रता की आवश्यकता होती थी।

तांत्रिक समावेशिता: इसके ठीक विपरीत, तांत्रिक मार्ग को सभी के लिए खुला माना गया है। आगम शास्त्र स्पष्ट रूप से कहते हैं कि शक्ति की उपासना में या दशमहाविद्या की साधना में जाति, वर्ग या लिंग का कोई भेद नहीं है । कोई भी सच्चा साधक, चाहे वह किसी भी पृष्ठभूमि का हो, गुरु की कृपा प्राप्त कर इस मार्ग पर चल सकता है। तंत्र में एकमात्र अधिकार श्रद्धा, भक्ति, विश्वास और गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण का है।

'अधिकार' की अवधारणा में यह परिवर्तन युग-धर्म के प्रति परमात्मा की करुणा का सबसे बड़ा प्रमाण है। शास्त्रों के अनुसार, कलियुग में अधिकांश मनुष्य शारीरिक और मानसिक रूप से अशुद्ध होते हैं । ऐसे समय में, अत्यंत पवित्रता और विशिष्ट कुल की अपेक्षा रखने वाले जटिल वैदिक अनुष्ठान जन-सामान्य के लिए लगभग असंभव हो जाते हैं। भगवान शिव ने इसी कारण करुणावश आगमों को प्रकट किया। तंत्र की सार्वभौमिक पहुँच एक दिव्य विधान है। यह जन्म या कुल जैसे बाह्य अधिकारों के स्थान पर निष्ठा, भक्ति और व्याकुलता जैसे आंतरिक गुणों को महत्व देता है, जो किसी भी व्यक्ति में हो सकते हैं। यही कारण है कि तंत्र को कलियुग में मोक्ष का सबसे व्यावहारिक, सुलभ और दयालु मार्ग माना जाता है।

निष्कर्ष: एक ही सत्य के दो सोपान

वैदिक और तांत्रिक मंत्र साधना का यह विवेचन हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचाता है कि ये दो भिन्न या विरोधी मार्ग नहीं, अपितु सनातन धर्म रूपी एक ही महावृक्ष की दो विशाल शाखाएँ हैं। इनके मध्य जो अंतर हैं, वे श्रेष्ठता या निम्नता के नहीं, बल्कि दृष्टिकोण, पद्धति और युग की आवश्यकता के हैं।

वैदिक मार्ग सनातन धर्म की शाश्वत नींव है, धर्म का ब्रह्मांडीय संविधान है। यह हमें 'ऋत' के उन सार्वभौमिक सिद्धांतों से जोड़ता है जो सृष्टि का संचालन करते हैं। इसकी साधना हमें ब्रह्मांडीय सामंजस्य के साथ एकाकार होना सिखाती है।

वहीं, तांत्रिक मार्ग उस संविधान का व्यावहारिक और व्यक्तिगत अनुप्रयोग है, उस परम सत्य का साक्षात्कार करने की आंतरिक प्रौद्योगिकी है। यह कलियुग के मानव की सीमाओं और क्षमताओं को ध्यान में रखकर बनाया गया एक शक्तिशाली और प्रत्यक्ष मार्ग है, जो शरीर को ही साधना का उपकरण और मंदिर बना देता है।

अंतिम सत्य यह है कि चाहे कोई साधक ऋषियों के पथ पर चलकर वेदों की पवित्र ऋचाओं का गान करे, या कौल मार्ग पर चलकर आगमों के शक्तिशाली बीज मंत्रों का जाप करे, गंतव्य एक ही है। दोनों ही भगवद्-प्राप्ति की दिव्य नदियाँ हैं जो देववाणी के हिमालय से निकलकर परब्रह्म के एक ही महासागर में विलीन होने के लिए प्रवाहित होती हैं। साधक को किस नदी का आश्रय लेना है, यह उसके स्वभाव, पात्रता (अधिकार) और गुरु की कृपा पर निर्भर करता है, किंतु परम सत्य सदैव एक, अद्वितीय और अद्वैत ही रहता है।


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