शैलपुत्री का शाब्दिक अर्थ है “शैल (पर्वत) की पुत्री”। इन्हें यह नाम इसलिए मिला क्योंकि इनका जन्म पर्वतराज हिमालय के घर पुत्री रूप में हुआ था। देवी शैलपुत्री को सती का पुनर्जन्म माना जाता है – पिछले जन्म में यही देवी प्रजापति दक्ष की पुत्री सती थीं जिन्होंने अपने पिता के यज्ञ में स्वयं को आहुति दे दी थी। अगले जन्म में सती ने हिमालय की बेटी पार्वती के रूप में जन्म लिया, इसलिए वे शैलपुत्री कहलाईं। नवरात्रि के प्रथम दिन मां शैलपुत्री की पूजा की जाती है, क्योंकि यही नवदुर्गा की प्रथम स्वरूपा हैं और आध्यात्मिक यात्रा की नींव रखती हैं।
पौराणिक कथा के अनुसार, दक्ष के यज्ञ में सती द्वारा योगाग्नि में देह त्याग के बाद भगवान शिव विरक्त होकर तप में लीन हो गए। संसार के कल्याण तथा शिव को फिर से जगत के कार्यों में संलग्न करने के लिए आदिशक्ति ने पार्वती (हिमालय की पुत्री) के रूप में अवतार लिया। शैलपुत्री के इस अवतार का उद्देश्य शिव से पुनः विवाह कर संसार की रचना एवं रक्षा के कार्य में संतुलन स्थापित करना था। बचपन से ही शैलपुत्री को भगवान शिव को पति रूप में पाने की लगन थी। आगे चलकर इन्होंने कठोर तपस्या करके शिव को प्राप्त किया, जिससे उनके अगले रूप (ब्रह्मचारिणी) की भूमिका भी निर्धारित होती है। शैलपुत्री का यह अवतार हमें बताता है कि अत्यंत त्याग और समर्पण के बाद ही ईश्वर की प्राप्ति संभव है।
मां शैलपुत्री को आदि शक्ति के सौम्य स्वरूप के रूप में पूजा जाता है। उनका वाहन वृषभ (बैल) है, इसलिए उन्हें वृषारूढ़ा भी कहते हैं । इनके दाएँ हाथ में त्रिशूल है और बाएँ हाथ में कमल पुष्प सुशोभित है। यह स्वरूप प्रकृति और स्थिरता का प्रतीक है – जैसे पर्वत अचल होता है, वैसे ही देवी शैलपुत्री भक्तों को आध्यात्मिक स्थिरता प्रदान करती हैं। उनकी आराधना से मूलाधार चक्र की शक्तियाँ जाग्रत होने की मान्यता है, जिससे साधक की आध्यात्मिक यात्रा का प्रारंभ होता है। शैलपुत्री देवी को पापों की विनाशिनी कहा जाता है, अर्थात उनकी उपासना से भक्त के पाप मिटते हैं और उसे नव ऊर्जा प्राप्त होती है। उपनिषदों में उन्हें हैमवती कहकर संबोधित किया गया है और एक कथा में उन्होंने देवताओं का गर्व भंग भी किया था, जो यह दर्शाता है कि देवी के इस रूप में अत्यंत शक्ति और तेज समाहित है।
भारत में माँ शैलपुत्री को समर्पित अनेक मंदिर हैं। वाराणसी (काशी) स्थित शैलपुत्री मंदिर इन्हीं देवी को समर्पित एक प्राचीन और प्रसिद्ध मंदिर है, जो काशी के वरुणा नदी तट के निकट स्थित है। मान्यता है कि जन्म के बाद पहली बार देवी शैलपुत्री काशी आई थीं और यहीं स्वयं विराजमान हो गईं। अतः वाराणसी को उनका स्थायी लोक माना जाता है, जहाँ नवरात्रि में विशेष रूप से उनकी पूजा होती है और भक्त उनके दर्शन करने आते हैं। धार्मिक विश्वास के अनुसार माँ शैलपुत्री कैलाश पर्वत पर भगवान शिव के साथ निवास करती हैं, क्योंकि पार्वती होने के नाते उनका दांपत्य जीवन शिवजी के संग वहीं व्यतीत होता है। वे सदा अपने भक्तों के आसपास प्रकृति की ऊर्जा बनकर उपस्थित हैं। भक्त जन यह भी मानते हैं कि जो व्यक्ति प्रथम दिवस शैलपुत्री की उपासना श्रद्धापूर्वक करता है, उसे देवी का आशीर्वाद मिलता है और उसके जीवन में आधारभूत शक्ति का संचार होता है।
शैलपुत्री का शाब्दिक अर्थ है “शैल (पर्वत) की पुत्री”। इन्हें यह नाम इसलिए मिला क्योंकि इनका जन्म पर्वतराज हिमालय के घर पुत्री रूप में हुआ था। देवी शैलपुत्री को सती का पुनर्जन्म माना जाता है – पिछले जन्म में यही देवी प्रजापति दक्ष की पुत्री सती थीं जिन्होंने अपने पिता के यज्ञ में स्वयं को आहुति दे दी थी। अगले जन्म में सती ने हिमालय की बेटी पार्वती के रूप में जन्म लिया, इसलिए वे शैलपुत्री कहलाईं। नवरात्रि के प्रथम दिन मां शैलपुत्री की पूजा की जाती है, क्योंकि यही नवदुर्गा की प्रथम स्वरूपा हैं और आध्यात्मिक यात्रा की नींव रखती हैं।
पौराणिक कथा के अनुसार, दक्ष के यज्ञ में सती द्वारा योगाग्नि में देह त्याग के बाद भगवान शिव विरक्त होकर तप में लीन हो गए। संसार के कल्याण तथा शिव को फिर से जगत के कार्यों में संलग्न करने के लिए आदिशक्ति ने पार्वती (हिमालय की पुत्री) के रूप में अवतार लिया। शैलपुत्री के इस अवतार का उद्देश्य शिव से पुनः विवाह कर संसार की रचना एवं रक्षा के कार्य में संतुलन स्थापित करना था। बचपन से ही शैलपुत्री को भगवान शिव को पति रूप में पाने की लगन थी। आगे चलकर इन्होंने कठोर तपस्या करके शिव को प्राप्त किया, जिससे उनके अगले रूप (ब्रह्मचारिणी) की भूमिका भी निर्धारित होती है। शैलपुत्री का यह अवतार हमें बताता है कि अत्यंत त्याग और समर्पण के बाद ही ईश्वर की प्राप्ति संभव है।
मां शैलपुत्री को आदि शक्ति के सौम्य स्वरूप के रूप में पूजा जाता है। उनका वाहन वृषभ (बैल) है, इसलिए उन्हें वृषारूढ़ा भी कहते हैं । इनके दाएँ हाथ में त्रिशूल है और बाएँ हाथ में कमल पुष्प सुशोभित है। यह स्वरूप प्रकृति और स्थिरता का प्रतीक है – जैसे पर्वत अचल होता है, वैसे ही देवी शैलपुत्री भक्तों को आध्यात्मिक स्थिरता प्रदान करती हैं। उनकी आराधना से मूलाधार चक्र की शक्तियाँ जाग्रत होने की मान्यता है, जिससे साधक की आध्यात्मिक यात्रा का प्रारंभ होता है। शैलपुत्री देवी को पापों की विनाशिनी कहा जाता है, अर्थात उनकी उपासना से भक्त के पाप मिटते हैं और उसे नव ऊर्जा प्राप्त होती है। उपनिषदों में उन्हें हैमवती कहकर संबोधित किया गया है और एक कथा में उन्होंने देवताओं का गर्व भंग भी किया था, जो यह दर्शाता है कि देवी के इस रूप में अत्यंत शक्ति और तेज समाहित है।
भारत में माँ शैलपुत्री को समर्पित अनेक मंदिर हैं। वाराणसी (काशी) स्थित शैलपुत्री मंदिर इन्हीं देवी को समर्पित एक प्राचीन और प्रसिद्ध मंदिर है, जो काशी के वरुणा नदी तट के निकट स्थित है। मान्यता है कि जन्म के बाद पहली बार देवी शैलपुत्री काशी आई थीं और यहीं स्वयं विराजमान हो गईं। अतः वाराणसी को उनका स्थायी लोक माना जाता है, जहाँ नवरात्रि में विशेष रूप से उनकी पूजा होती है और भक्त उनके दर्शन करने आते हैं। धार्मिक विश्वास के अनुसार माँ शैलपुत्री कैलाश पर्वत पर भगवान शिव के साथ निवास करती हैं, क्योंकि पार्वती होने के नाते उनका दांपत्य जीवन शिवजी के संग वहीं व्यतीत होता है। वे सदा अपने भक्तों के आसपास प्रकृति की ऊर्जा बनकर उपस्थित हैं। भक्त जन यह भी मानते हैं कि जो व्यक्ति प्रथम दिवस शैलपुत्री की उपासना श्रद्धापूर्वक करता है, उसे देवी का आशीर्वाद मिलता है और उसके जीवन में आधारभूत शक्ति का संचार होता है।