महाविद्या तारा
उत्पत्ति की कथा या स्रोत
माता तारा दस महाविद्याओं में दूसरी हैं। तारा का अर्थ है “जो पार कराने वाली हो” – तारा देवी को भगवत कृपा की नाव कहा जाता है जो भक्तों को संसार-सागर से पार लगाती हैं। तारा की प्रकट कथा पुराणों में समुद्र-मंथन से जुड़ी एक रोचक घटना में मिलती है। देवासुर संग्राम के दौरान जब देवताओं-असुरों ने अमृत के लिए समुद्र मंथन किया, तब भीषण विष निकला जिससे त्रिलोकी का विनाश होने लगा। भगवान शिव ने करुणावश वह कालकूट विष पी लिया, लेकिन विष के प्रभाव से वे मूर्छित होकर गिर पड़े, देवताओं की प्रार्थना पर आद्याशक्ति भवानी प्रकट हुईं। उस शक्ति ने तारा देवी का रूप धारण किया और शिव को गोद में लेकर उनका पालन-पोषण किया। उन्होंने अपने स्तनों से शिव को दुग्धपान कराया जिससे विष का प्रभाव शांत हुआ और शिवजी चेतना में लौट आए। इस प्रकार माँ तारा ने भगवान शंकर को जीवनदान दिया। इस कथा का उल्लेख तंत्र-ग्रंथों और लोकमानस में व्यापक रूप से मिलता है। तारा को इसी कारण “नीलकंठी” भी कहा जाता है कि जिसने नीले हलाहल विष का प्रभाव हर लिया। एक अन्य प्रसिद्ध स्रोत रुद्रयामल तंत्र है, जिसके 17वें अध्याय में महर्षि वशिष्ठ के द्वारा तारा की उपासना का उल्लेख है।। कथानुसार वशिष्ठ कई बार तारा साधना में असफल हुए, तब भगवान विष्णु उन्हें महामंत्र प्रदान करते हैं जिससे वशिष्ठ को तारा का साक्षात्कार होता है। इस कथा में तारा विद्या को महाचीन देश (तिब्बत या चीन) से लाए जाने का वर्णन है। बौद्ध परम्परा में भी तारा देवी अवलोकितेश्वर की करुणाश्रुओं से जन्मी तारिणी देवी हैं, पर हिन्दू तारा महाविद्या का स्वरूप उग्र तथा शक्तिमय है। कुछ ग्रंथों में तारा को मातंगि और कालिका के साथ त्रयी रूप में भी बताया गया है, जो श्मशान में विराजमान तीन प्रमुख महाविद्याएँ हैं। संक्षेप में, तारा की उत्पत्ति सम्बन्धी कथाएँ बताती हैं कि संकट के क्षण में संसार की रक्षा हेतु यह देवी प्रकट होती हैं – चाहे वह भगवान शिव को विष से बचाना हो या भक्तों को भय से तारना हो।
आध्यात्मिक एवं तांत्रिक महत्त्व
तारा देवी को सर्वसंकट तारणकर्त्री माना जाता है। वे करुणामयी माँ हैं जो कठिन से कठिन परिस्थिति में भक्त का मार्गदर्शन करती हैं। महातारा का नीला वर्ण (नीलवर्णा) अज्ञानरूपी अंधकार को हरने वाली ज्योति का प्रतीक है। तारा रूप भगवती पार्वती का तांत्रिक रूप है जिसमें वे उग्र होते हुए भी मातृस्वभाव रखती हैं। तांत्रिक ग्रंथ कहते हैं कि तारा विद्या सर्वविद्या में प्रधान है – अर्थात् समस्त ज्ञानों में सर्वोपरि है, क्योंकि तारा मोक्षदायिनी हैं। उन्हें नील सरस्वती भी कहा जाता है, जो संकेत है कि तारा ज्ञान और वाणी की अधिष्ठात्री हैं (सरस्वती) पर उनका स्वरूप गम्भीर (नीलवर्ण) व तांत्रिक है। तारा की तीन मुख्य उपासनात्मक महाभाव हैं: उग्रतारा (उग्र रूप, संकट से रक्षक), एकजटा (एक जटा धारी, एकनिष्ठ चेतना) और नील सरस्वती (ज्ञानदायिनी)। भक्तों के लिए तारा संकटमोचना हैं – “तारिणी” कहकर उन्हें पुकारा जाता है जिसका अर्थ है तारने वाली। मान्यता है कि जन्म-मृत्यु के भवसागर से तारने के कारण ही उनका नाम तारा पड़ा। तंत्र साधना में तारा को काली के समान महत्वपूर्ण माना गया है। साधक के लिए तारा बाह्य शत्रुओं से रक्षा करने के साथ-साथ आंतरिक शत्रु (अहंकार, भय, अज्ञान) को भी नष्ट करती हैं। माँ तारा का एक विशेष पक्ष यह है कि वे श्मशान की देवी हैं – उन का निवास श्मशान और चरम सीमाओं पर है, जो दर्शाता है कि आध्यात्मिक विकास के लिए साधक को सभी भय और वर्जनाओं से पार होना होता है। तारा का तारक मंत्र (तारिणी मंत्र शक्ति देने वाला बताया गया है। इनकी करुणा इतनी प्रबल है कि वे दुष्टों पर भी दया कर उन्हें सुधरने का अवसर देती हैं। बौद्ध धारणा में भी तारा समस्त प्राणियों की रक्षक देवी हैं – यह दर्शाता है कि सभी परम्पराओं में तारा करुणामयी और तारक शक्ति के रूप में सम्मानित हैं।
पूजा विधि और अनुष्ठान
तारा देवी की उपासना में तांत्रिक विधियों का विशेष स्थान है। सामान्य भक्त भी तारा की पूजा माँ काली के समान ही करते हैं, किंतु कुछ भिन्नता के साथ। तारा को नीले फूल (नीलकमल यदि उपलब्ध हो तो सर्वोत्तम), नीला वस्त्र, खीर या दूध से बनी मिठाई प्रिय है। तारा की मूर्ति या चित्र अक्सर गर्दभ (गधे) पर विराजमान दिखाया जाता है, हाथ में खड़ग और खप्पर (कटे सिर का पात्र) धारण किए हुए। उनकी पूजा में पंचतत्वों का समावेश होता है – जिसे तंत्र में मद्य, मांस आदि “पंच मकार” कहा गया है – लेकिन सामान्य भक्त केवल नारियल, फल-मेवा और धूप-दीप से ही पूजा करते हैं। तारा महाविद्या मंत्र में “ॐ ह्रीं स्त्रीं हूँ फट्” जैसे बीज शामिल होते हैं। तंत्र साधक रात्रिकाल में श्मशान या एकान्त स्थान पर दस महाविद्या यंत्र स्थापित कर तारा का आवाहन करते हैं। पशुबलि की परम्परा पहले कभी-कभी रही होगी, पर अब प्रायः कद्दू या नारियल की बलि ही दी जाती है। बंगाल में तारापीठ (जिसे तारा पीठ कहते हैं) में तारा माँ को बकरों की बलि देने की प्रथा कभी प्रचलित थी,किन्तु अब वहाँ भी शाकाहारी भोग चढ़ाया जाता है। एक अनूठी पूजा विधि “नील सरस्वती स्तोत्र” का पाठ है – यह तारा देवी का स्तोत्र है जिसे भक्त नित्य प्रातः या चतुर्दशी तिथि को पढ़ते हैं ताकि वाणी, संगीत तथा विद्या का आशीर्वाद मिले। तारा की साधना में दुर्गा सप्तशती के कुछ श्लोक भी उपयोगी माने जाते हैं, विशेषकर वह अर्गला स्तोत्र जिसमें “पातु त्वं तारा दुर्गे…” इत्यादि आता है। बौद्ध परम्परा से प्रभावित क्षेत्रों में हरे रंग की तारा और नीले रंग की उग्र तारा की पूजन-पद्धति चलन में है, जहाँ मंत्रसंयोग और ध्यान के माध्यम से उनसे आशीर्वाद माँगा जाता है। नवरात्रि के पाँचवे दिन कुछ साधक तारा की पूजा करते हैं (हालाँकि परंपरागत रूप से उस दिन स्कंदमाता की पूजा मानी गई है)। कुल मिलाकर, तारा की उपासना भक्त को निर्भय बनाती है और उसे जीवन नैया पार करने की शक्ति देती है।
प्रमुख मंदिर या स्थान
तारा महाविद्या के कुछ अत्यंत प्रसिद्ध तीर्थस्थान हैं। पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले में तारापीठ शक्तिपीठ स्थित है, जहाँ माँ तारा की जाग्रत मूर्ति श्मशान के निकट स्थित मंदिर में प्रतिष्ठित है। तारापीठ की तारा देवी को “श्मशान तारा” कहा जाता है। दूर-दूर से श्रद्धालु तारापीठ में तारा माँ के दर्शन करने आते हैं, विशेषकर अमावस्या की रात यहाँ भीड़ रहती है।उड़ीसा राज्य में ब्रह्मपुर के निकट तारा-तरणी मंदिर (तारिणी पीठ) भी शाक्तों का प्राचीन स्थान है।– यह पहाड़ी पर स्थित है और मान्यता है कि सती के अंग वहाँ गिरे, जिससे देवी तारा और उनकी सखी तरणी प्रकट हुईं। उज्जैन (मध्यप्रदेश) में गढ़कालिका क्षेत्र में एक तारा मंदिर है, हालांकि उज्जैन मुख्यतः कालिका के लिए प्रसिद्द है। (काशी) में कुछ साधना स्थलों पर तारा के यंत्र की उपासना होती है – कहा जाता है कि काशी के महाश्मशान (मणिकर्णिका) में माता तारा की अदृश्य उपस्थिति है और कई तांत्रिक वहीं ध्यान करते हैं। इसके अतिरिक्त नेपाल में काठमांडू घाटी में तारा देवी बौद्ध-हिन्दू सबकी आराध्या हैं – स्वयम्भूनाथ स्तूप के पास हिरण्यवरणा महाविहार (भगवान बुद्ध का मन्दिर) में हरे-तारा और नील-तारा की मूर्तियाँ विराजमान हैं जिनका श्रद्धालु दर्शन करते हैं। इस प्रकार पूर्व से पश्चिम तक कई स्थलों पर माँ तारा संकटहरणी रूप में पूजी जाती हैं।
ग्रंथों में उल्लेख या उद्धरण
तारा महाविद्या का उल्लेख कई तंत्र और पुराणों में आया है। इससे तारा की प्राचीन व्यापकता का पता चलता है। तारा की स्तुति में नीलतंत्रती तंत्र जैसे अलग ग्रंथ हैं, जिनमें उनकी साधना विधि दी गई है।ब्रह्मयामल, मायातंत्र, तंत्रसार आदि ग्रंथों में देवी तारा के विभिन्न रूपों का वर्णन मिलता है। विशेष रूप से 'मायातंत्र' में तारा की आठ विशिष्ट आकृतियाँ वर्णित हैं।: एकजटा, उग्रतारा, महोग्रा, कामेश्वरी तारा, छामुंडा, नीलसरस्वती, वज्रतारा और भद्रकाली"इससे स्पष्ट होता है कि देवी तारा अनेक रूपों को धारण करने वाली, बहुरूपी और विविध शक्तियों से सम्पन्न देवी हैं। बौद्ध ग्रंथ साधना-माला (1156 ई.) में भी चिन्नमुण्डा तारा (वज्रयोगिनी का रूप) का वर्णन मिलता है,। महानिर्वाण तंत्र और तारिणी तंत्र में तारा की महत्ता का वर्णन है और उन्हें श्रीमदथर्ववेद का स्वरूप कहा गया है। वामाचार के कुछ ग्रंथों में तारा को काली का ही समकक्ष रूप माना गया है – जैसे दोनों को श्मशान में विराजमान और भयावह सौन्दर्ययुक्त बताया गया है । रामकृष्ण परमहंस जैसे संतों ने तारा को श्यामामयीकाली के रूप में पूजकर सिद्धियाँ प्राप्त कीं। आधुनिक काल में तारा की भक्ति-धारा को रामप्रसाद सेन के गीतों और बामाक्षेपा के भक्तिपूर्ण साधनाओं ने लोकप्रिय बनाया। सारतः, शास्त्र और इतिहास तारा देवी को करुणा और रक्षण की देवी के रूप में स्वीकारते हैं, जिनका स्मरण विष्णु-शिवादि देव भी समय-समय पर करते आए हैं।