ब्रह्मचारिणी नाम दो शब्दों से मिलकर बना है – ‘ब्रह्म’ तथा ‘चारिणी’। इसका अर्थ है तप का आचरण करने वाली या ब्रह्म (तप/ज्ञान) को धारण करने वाली स्त्री। इस रूप में माँ पार्वती पूर्णतः तपस्विनी व संयमी हैं। नवरात्रि के दूसरे दिन इनकी पूजा की जाती है। पिछले जन्म (सती के रूप) में आत्माहुति देने के बाद नए जन्म में पार्वती ने किशोरावस्था में कठोर तपस्या की, इसलिए उन्हें ब्रह्मचारिणी कहा गया। देवी ब्रह्मचारिणी का यह स्वरूप शांत, ज्ञानमयी और अत्यंत धैर्यवान माना जाता है।
ब्रह्मचारिणी रूप में देवी पार्वती ने भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए घोर तप किया था। कथा के अनुसार नारद मुनि के उपदेश पर हिमालय-कन्या पार्वती ने बाल्यकाल से ही तपस्या आरंभ कर दी। उन्होंने हजारों वर्षों तक कठिन व्रत रखे – शुरुआत में केवल फल-फूल पर निर्वाह, फिर सूखे बिल्व पत्रों का सेवन, और अंत में निर्जला निराहार तपस्या। उनकी कठोर तपस्या से समस्त देवगण प्रभावित हुए और शिव जी को प्रसन्न होना पड़ा। इस दौरान देवी का शरीर एकदम क्षीण हो गया था, पर उन्होंने तप नहीं त्यागा। उनकी इसी तप-तपस्या के कारण उन्हें अपर्णा नाम भी मिला (अपर्णा यानी जिन्होंने पत्ते तक खाना छोड़ दिया था)। अंततः उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान शिव प्रकट हुए और उन्हें अपनी अर्धांगिनी रूप में स्वीकार किया। ब्रह्मचारिणी देवी के अवतरण का उद्देश्य था – शिव जैसे कठिन स्वभाव वाले देवता को अपनी तपस्या के बल पर प्राप्त करना, ताकि पार्वती और शिव के मिलन से जगत का कल्याण हो और भगवान कार्तिकेय (स्कंद) का जन्म संभव हो सके, जो आगे चलकर तारकासुर जैसे दैत्य का संहार करेंगे। इस प्रकार ब्रह्मचारिणी का तप स्वरूप पूरी सृष्टि के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करता है।
माँ ब्रह्मचारिणी त्याग, तप और वैराग्य की मूर्ति हैं। उनकी पूजा से साधक में तपस्या, संयम और त्याग की वृत्तियाँ प्रबल होती हैं। माना जाता है कि इस दिन साधक का मन स्वाधिष्ठान चक्र में स्थित होता है, जहाँ से उसे ऊर्जा और दृढ़ता प्राप्त होती है। ब्रह्मचारिणी देवी का स्वरूप अति सरल है – वे दो हाथों वाली हैं, दाहिने हाथ में जपमाला (रुद्राक्ष की माला) और बाएँ हाथ में कमण्डलु धारण किए हुए हैं। उनके वस्त्र श्वेत हैं और वे नंगे पैर हैं, जो उनके तपस्वी जीवन का संकेत है। यह शांत रूप भक्तों को यह सीख देता है कि जीवन में चाहे कितने भी कष्ट आएँ, धैर्य और तप नहीं छोड़ना चाहिए। ब्रह्मचारिणी की आराधना से इच्छाशक्ति मज़बूत होती है, मनोबल बढ़ता है और व्यक्ति को अनुग्रहपूर्वक ज्ञान व सिद्धि प्राप्त होती है। कहा जाता है कि जो भक्त नवरात्रि के द्वितीय दिवस मां ब्रह्मचारिणी की पूजा करता है, उसे देवी सच्चा ज्ञान, आत्मविश्वास और वैराग्य का आशीष देती हैं।
माँ ब्रह्मचारिणी के प्राचीन मंदिर वाराणसी में मिलते हैं। काशी के बलाजी घाट पर स्थित ब्रह्मचारिणी देवी मंदिर काफी प्रसिद्ध है। यहाँ नवरात्रि के दूसरे दिन भक्तों की भीड़ लगती है और विशेष पूजा-अर्चना होती है। ऐसा कहा जाता है कि पार्वती ने अपने पिता हिमालय के घर तथा आसपास के पर्वतीय क्षेत्रों में रहकर घोर तपस्या की थी, इसलिए कुछ भक्त मानते हैं कि आज भी देवी ब्रह्मचारिणी हिमालय पर तपस्विनी रूप में विराजमान हैं और कठिन साधना करने वाले ऋषि-मुनियों को अदृश्य रूप से आशीर्वाद देती हैं। वर्तमान लोक में, पार्वती ने तपस्या पूर्ण कर शिव से विवाह किया, इसलिए एक विश्वास यह भी है कि देवी ब्रह्मचारिणी अब कैलाश पर शिव-पार्वती के साथ पूजनीय हैं। उनके ब्रह्मचारिणी स्वरूप की ज्योति हर उस स्थान में मानी जाती है जहाँ कोई सच्चे मन से तप करता है – अर्थात् वे प्रत्येक तपस्वी के हृदय में निवास करती हैं। माता के इस रूप से श्रद्धालु यह प्रेरणा लेते हैं कि सच्ची लगन और कठिन साधना से ईश्वर को पाया जा सकता है।
ब्रह्मचारिणी नाम दो शब्दों से मिलकर बना है – ‘ब्रह्म’ तथा ‘चारिणी’। इसका अर्थ है तप का आचरण करने वाली या ब्रह्म (तप/ज्ञान) को धारण करने वाली स्त्री। इस रूप में माँ पार्वती पूर्णतः तपस्विनी व संयमी हैं। नवरात्रि के दूसरे दिन इनकी पूजा की जाती है। पिछले जन्म (सती के रूप) में आत्माहुति देने के बाद नए जन्म में पार्वती ने किशोरावस्था में कठोर तपस्या की, इसलिए उन्हें ब्रह्मचारिणी कहा गया। देवी ब्रह्मचारिणी का यह स्वरूप शांत, ज्ञानमयी और अत्यंत धैर्यवान माना जाता है।
ब्रह्मचारिणी रूप में देवी पार्वती ने भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए घोर तप किया था। कथा के अनुसार नारद मुनि के उपदेश पर हिमालय-कन्या पार्वती ने बाल्यकाल से ही तपस्या आरंभ कर दी। उन्होंने हजारों वर्षों तक कठिन व्रत रखे – शुरुआत में केवल फल-फूल पर निर्वाह, फिर सूखे बिल्व पत्रों का सेवन, और अंत में निर्जला निराहार तपस्या। उनकी कठोर तपस्या से समस्त देवगण प्रभावित हुए और शिव जी को प्रसन्न होना पड़ा। इस दौरान देवी का शरीर एकदम क्षीण हो गया था, पर उन्होंने तप नहीं त्यागा। उनकी इसी तप-तपस्या के कारण उन्हें अपर्णा नाम भी मिला (अपर्णा यानी जिन्होंने पत्ते तक खाना छोड़ दिया था)। अंततः उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान शिव प्रकट हुए और उन्हें अपनी अर्धांगिनी रूप में स्वीकार किया। ब्रह्मचारिणी देवी के अवतरण का उद्देश्य था – शिव जैसे कठिन स्वभाव वाले देवता को अपनी तपस्या के बल पर प्राप्त करना, ताकि पार्वती और शिव के मिलन से जगत का कल्याण हो और भगवान कार्तिकेय (स्कंद) का जन्म संभव हो सके, जो आगे चलकर तारकासुर जैसे दैत्य का संहार करेंगे। इस प्रकार ब्रह्मचारिणी का तप स्वरूप पूरी सृष्टि के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करता है।
माँ ब्रह्मचारिणी त्याग, तप और वैराग्य की मूर्ति हैं। उनकी पूजा से साधक में तपस्या, संयम और त्याग की वृत्तियाँ प्रबल होती हैं। माना जाता है कि इस दिन साधक का मन स्वाधिष्ठान चक्र में स्थित होता है, जहाँ से उसे ऊर्जा और दृढ़ता प्राप्त होती है। ब्रह्मचारिणी देवी का स्वरूप अति सरल है – वे दो हाथों वाली हैं, दाहिने हाथ में जपमाला (रुद्राक्ष की माला) और बाएँ हाथ में कमण्डलु धारण किए हुए हैं। उनके वस्त्र श्वेत हैं और वे नंगे पैर हैं, जो उनके तपस्वी जीवन का संकेत है। यह शांत रूप भक्तों को यह सीख देता है कि जीवन में चाहे कितने भी कष्ट आएँ, धैर्य और तप नहीं छोड़ना चाहिए। ब्रह्मचारिणी की आराधना से इच्छाशक्ति मज़बूत होती है, मनोबल बढ़ता है और व्यक्ति को अनुग्रहपूर्वक ज्ञान व सिद्धि प्राप्त होती है। कहा जाता है कि जो भक्त नवरात्रि के द्वितीय दिवस मां ब्रह्मचारिणी की पूजा करता है, उसे देवी सच्चा ज्ञान, आत्मविश्वास और वैराग्य का आशीष देती हैं।
माँ ब्रह्मचारिणी के प्राचीन मंदिर वाराणसी में मिलते हैं। काशी के बलाजी घाट पर स्थित ब्रह्मचारिणी देवी मंदिर काफी प्रसिद्ध है। यहाँ नवरात्रि के दूसरे दिन भक्तों की भीड़ लगती है और विशेष पूजा-अर्चना होती है। ऐसा कहा जाता है कि पार्वती ने अपने पिता हिमालय के घर तथा आसपास के पर्वतीय क्षेत्रों में रहकर घोर तपस्या की थी, इसलिए कुछ भक्त मानते हैं कि आज भी देवी ब्रह्मचारिणी हिमालय पर तपस्विनी रूप में विराजमान हैं और कठिन साधना करने वाले ऋषि-मुनियों को अदृश्य रूप से आशीर्वाद देती हैं। वर्तमान लोक में, पार्वती ने तपस्या पूर्ण कर शिव से विवाह किया, इसलिए एक विश्वास यह भी है कि देवी ब्रह्मचारिणी अब कैलाश पर शिव-पार्वती के साथ पूजनीय हैं। उनके ब्रह्मचारिणी स्वरूप की ज्योति हर उस स्थान में मानी जाती है जहाँ कोई सच्चे मन से तप करता है – अर्थात् वे प्रत्येक तपस्वी के हृदय में निवास करती हैं। माता के इस रूप से श्रद्धालु यह प्रेरणा लेते हैं कि सच्ची लगन और कठिन साधना से ईश्वर को पाया जा सकता है।